सादर समर्पण

सभी जीव राधाकान्तस्य वत्सः राधाकान्त वत्स हैं तदनुसार परात्पर परब्रह्म सर्वेश्वर श्रीकृष्ण के अंश हैं “ममैवांशो जीव लोके जीव भूत सनातनः”  भगवद् गीता में ही सर्वेश्वर श्रीकृष्ण ने बताया है परात्पर परब्रह्म  सर्वेश्वर श्रीकृष्ण “ रसो वैः सः”  हैं अतः जीव भी आनन्द स्वरूप ही है “ चेतन अमल सहज सुख राशि”। इसीलिये राधाकान्त वत्स का एक और अर्थ हो जाता है कि राधाकान्तवत् राधाकान्त वत्स। कुछ साधक भ्रान्ति पाल लेते हैं कि मैं ही ब्रह्म हूँ अर्थात् ‘अपूर्ण अद्वैत’  जो मृत्युलोकीय तो क्या अनन्तान्त कोटि ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत ही नहीं अन्यान्य लोकलोकान्तर्गत एवं भगवद् धामों के जीवन में भी सम्भव नहीं। इसीलिये इस कलिकाल के आद्याचार्य जगद् गुरु श्रीनिम्बार्क भगवान ने स्वाभाविक-द्वैताद्वैत सिद्धान्त साधकों को दिया जिसका खण्डन बाद में भूमण्डल के किसी भी आचार्य श्रीशंकर आदि ने भी नहीं किया और समयानुसार इसी के अंशों की व्याख्या करके जनकल्याण किया और साहित्य की शोभा बढायी | ब्रह्म स्वतंत्र है तो जीव मायावश है। माया से निकल कर अपने स्वरूप प्रप्ति के लिये “ नान्या गतिः कृष्ण पदार्विन्दात्”  ही एकमात्र मार्ग आचार्यश्रीचरणों ने उपदेश किया है । “ सहज अंश श्रीकृष्ण कौ , जीव न तेहि समान । निज स्वरूप पहिचान कै , किंकरि तब कल्यान ।। निज स्वरूप जानै नहीं , भटकत मारग आन । बुद्धि कुबुद्धि विचार मत , किंकरि नहिं कल्यान ॥”  अतः “ नान्या गतिः कृष्ण पदार्विन्दात्”  के अनुसार परात्पर सर्वेश्वर श्रीकृष्ण की शरणागति बद्ध , बद्धमुक्त और मुक्त तीनों जीव को  परमावश्यक है । शरणागत होकर जीव शान्त , दास्य , सख्य , वात्सल्य और माधुर्य भाव से परात्पर सर्वेश्वर श्रीकृष्ण की उपासना करता है । हमारे आचार्यो ने सभी भावों को जीव कल्याणार्थ प्रशस्ति प्रदान की है क्योंकि जीव के सत्कर्म संचित मानस के स्तर के अनुसार ही क्रमशः भाव और परात्पर सर्वेश्वर श्रीकृष्ण से सम्बन्ध स्थापित हो पाते हैं । इन सभी भावों में दुर्लभातिदुर्लभ श्रेष्ठतम भाव तो माधुर्य भाव ही है । माधुर्य भाव की उपासना में  परात्पर सर्वेश्वर श्रीकृष्ण , आचार्य और जीव स्वयं तीन प्रमुख आधार हैं । परात्पर सर्वेश्वर श्रीकृष्ण का स्वरूप , आचार्य का स्वरूप और जीव का स्वरूप जानना बहुत आवश्यक है । परात्पर सर्वेश्वर श्रीकृष्ण के स्वरूप में  श्रीकृष्ण स्वयं , श्रीराधारानी और श्रीधाम इसी प्रकार आचार्य स्वरूप में आद्याचार्य, आचार्य और निज गुरु  तथा जीव के स्वरूप में जीव का स्वरूप , जीव का श्रीयुगल से सम्बन्ध और आचार्यों एवम् गुरुओं से सम्बन्ध जानना परमावश्यक तत्व है । इन सभी तत्वों का आचार्यों ने स्पष्ट वर्णन किया हुआ है। इन्हीं आचार्योपदिष्ट तत्वों के आधार पर “ प्रातकाल ही ऊठि कै धारि सखी कौ भाव । जाय मिलै निज रूप सौं याकौ यहै उपाव ।।”  नित्यनिकुञ्ज में जीव सखी स्वरूप धारण करके ही प्रवेश करता है वह भी अपने श्रीगुरुसखी की अनुचरी होकर । आचार्यों ने श्रीधाम नित्यनिकुञ्ज़ में श्रीयुगल सरकार की परम रसमयी सेवा और लीलान्तर्गत सेवाएं की हैं जिनका वर्णन आचार्यों के ग्रंथों में मिलता है श्री श्रीजी महाराज निकुञ्जसेवामृत”  में मेरे गुरुदेव के द्वारा श्रीधाम नित्यनिकुञ्ज में सर्वेश्वर श्रीराधामाधव की अष्टयाम सेवा यानि सेवासुख और वार्षिक सेवा अर्थात् उत्साह सुख का वर्णन किया गया है । “श्री श्रीजी महाराज निकुञ्जसेवामृत” में श्रीयुगल सरकार के चार प्रकार से स्नान , श्रंगार कुञ्ज और श्रंगार , हिरण लीला , हंसलीला , चिडिया लीला , नौका लीला , विमान लीला , आदि कई विशेष लीलाएं वर्णित की गयी हैं। होली के अवसर पर बन्दरिया लीला हास्य प्रदान करती है तो दीपावली पर आचार्य सखी द्वारा दीपावली लीला गुरु शिष्य के अन्तरंग रहस्य को संकेत करती है । इस ग्रंथ के लेखन में बार-बार हाथ रुक जाने पर श्रीयुगल से झुंझलाकर उलाहना दिया तब श्रीयुगल की प्रेरणा से विवाह लीला और फिर जबरदस्ती विवाह की बधायी लिखी गयी। श्रीधाम वृन्दावन में नित्यनिकुञ्जोपासक नित्य निकुञ्ज में गाय नहीं मानते हैं। मैं कुछ कहने में असमर्थ हूँ परन्तु मेरे बहुत सारे प्रश्नों के उत्तर इन अति गोपनीयतावादी विद्वान उपासकों के पास नहीं हैं अतः यहाँ मानना पडता है कि श्रीमहावाणी जी का आश्रय लेकर उपासना करने वाले ये साधक ही हैँ सिद्ध नहीं अतः सभी पूज्य वर्ग का सम्मान है किन्तु अपूर्ण ज्ञान अस्वीकार है। बहुत से साधक केवल राधा नाम जाप और केवल राधिकोपासना करते हैं तो कुछ अन्य केवल कृष्णोपासना करते हैं ये सब भाव के अनुसार स्वेच्छचारिता है शास्त्र सम्मत तो वेदान्त दशश्लोकि के अनुसार युगलोपासना ही है। बहुत लीलाएं श्रीमहावाणी जी में वर्णित नहीं हैं लेकिन अन्य आचार्यों ने वर्णन किया है जैसे कन्दुक-लीला मेरे गुरुदेव आचार्यश्री ने वर्णन की है । हमारे साहित्य में  सौड (रजाई) लीला का वर्णन किया है मुझे आज तक सिद्धान्त के अनुसार उसका औचित्य समझ नहीं आया है । इस ग्रंथ के लेखन में मेरा कोई भी श्रेय नहीं है यह सब मेरे निज अर्चाविग्रह श्रीनित्यनिकुञ्जबिहारीबिहारिणी जू , मेरे गुरुदेव जगद् गुरु श्रीनिम्बार्काचार्य श्री श्रीजी महाराज की अहैतुकी अनूठी कृपा ही रसमय आधार है । नित्यनिकुञ्ज में श्रीसर्वेश्वर राधामाधव जी की मेरे गुरुदेव के द्वारा की गयी सेवा निश्चित रसमयी है क्यौकि “रसमय श्रीगुरुदेव हमारे” (श्रीजीमहाराज महिमामृत) । सावधानी रखने के बाद भी हुयी त्रुटियों के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ । इस ग्रंथ को मैं “त्वदीयं वस्तु गोविन्द  तुभ्यमेव समर्पये ”  के सत्य के साथ अपने गुरुदेव परम पूज्य पाद जगद् गुरु निम्बार्काचार्य श्री श्रीजी महाराज के श्रीकर-कमलों में समर्पित करता हूँ

आचार्यश्रीचरण रज किंकर

डा. राधाकान्त वत्स

अष्टयाम

युगल स्वरूप जनिबे के हित , श्री गुरु तत्व प्रथम होइ ज्ञान ।

श्री गुरु तत्व जानिबे के हित , श्री गुरु शरण चरन रज मान ॥

गुरु आदेश आचरन हिय धरि , श्री गुरु सेवा करि धरि ध्यान ।

किंकरि भाव अखण्ड रहै तब , श्री गुरु तत्व प्रकट परमान ॥

पद

श्री जी महाराज कौ नाम , भोर उठि लीजै रे ।

सकल सुमंगल दौरे आवैं , जीवन मंगल कीजै रे ।।

श्री जी महाराज कौ ध्यान , भोर उठि कीजै रे ।

सकल दोष परिहार होत है , चित्त वृत्ति शुध्द कीजै रे ।।

श्री जी महाराज कूँ नमन , भोर उठि कीजै रे ।

सहजहि भक्ति अलभ्य पाइ कै , नित निकुञ्ज रस पीजै ।।

श्री जी महाराज गुन गान , भोर उठि कीजै रे ।

लाल लली किंकरी होइ कै , अष्टयाम सुख लीजै रे ।। 1 ।।

पद

श्री जी महाराज गुन गावौ रे ।

नाम रूप निष्ठा सुख सहजहिं , सरस सरस रस पावौ रे ।।

सुनि गुन गान युगल हरषावैं , नित निकुञ्ज पद पावौ रे ।

किंकरि करि सेवा में राखत , सहचरि किरपा पावौ रे ।। 2 ।।

पद

हे मम जीवन स्वामिनी , श्री श्री जी महाराज ।

चरन कमल रज रस मयी , श्री श्री जी महाराज ।।

श्री वृन्दावन दायिनी , श्री श्री जी महाराज ।

श्री वन शोभा वर्ध्दिनी , श्री श्री जी महाराज ।।

भांति भांति तरु सुमन खिलावनि , श्री श्री जी महाराज ।

श्रीवन सुयश तिहारो मानै , श्री श्री जी महाराज ।।

लीला ललित दिखावनहारी , श्री श्री जी महाराज ।

किंकरि कमल खिलावनि हारी , श्री श्री जी महाराज ।। 3 ।।

पद

हे गुन आगर सुभक्ति सागर , हे श्री जी महाराज ।

हे धर्म मूर्ति हे ज्ञान सिन्धु , हे श्री जी महाराज ।।

हे मन निग्रह श्रीवन विग्रह , हे श्री जी महाराज ।

हे विद्या वारिधि रस संचारक , हे श्री जी महाराज ।।

हे अघ घातक दोष निवारक , हे श्री जी महाराज ।

हे गुरु देव उदार शिरोमणि , हे श्री जी महाराज ।।

हे कल्प वृक्ष किंकरि जन के , हे श्री जी महाराज ।

चरन कमल रज किरपा कीजै , हे श्री जी महाराज ।।

पारस परस सुहावन कीजै , हे श्री जी महाराज ।

तब ही काज सरैं किंकरि के , हे श्री जी महाराज ।। 4 ।।

पद

हे गुरु देव कृपा अस कीजै ।

मन श्री वन रहि हिय श्री वन बसि , श्रीवन भाव हमारो कीजै ।।

श्री वन वृत्ति सहज सुखकारी , श्रीवन सेवा सुखकर दीजै ।

किंकरि श्री वन विवि विहार सुख , भांति भांति बहु सेवा दीजै ।। 5 ।।

पद

हौं तौ श्री जी के रँग राँच्यो ।

श्री श्री जी महाराज सिखावत , तेहि पद गति रति सांच्यो ।।

सोई धर्म भक्ति मोहि भावै , जो श्री जी नै बाँच्यो ।

सोई ज्ञान विज्ञान भलो मोहि , जो श्री जी समझायो ।।

देखि किये बहु करम धरम सब , सब मारग हौं जांच्यो ।

किंकरि हिय करनी सोइ राखत , आनि बात सब कांच्यो । । 6 ।।

पद

श्री युगल प्रिया जू की रस मयी रीति ।

जो जन नाम जपत श्री राधा , उनसौं मानत प्रीति ।।

चरन कमल रज अपने राखत , सम्पोषत सब रीति ।

अति अलभ्य किंकरि हू पावत , नित निकुञ्ज सौं प्रीति ।। 7 ।।

दोहा- प्रातः उठि चिन्तन करूँ , प्रभु गुरुदेव स्वरूप ।

इनके पद वन्दन किये , जीव पाय निज रूप ॥1॥

हौं तौ प्रभु कौ अंश हूँ , तदनुरूप चैतन्य ।

सेवक बनि सेवा करूँ , जन्म होइ तब धन्य ॥2॥

श्री राधा कुंज विहारि जू , जीवन प्रान अधार ।

सखीभाव सेवा करूँ , अष्टयाम सुखसार ॥3॥

अपनौ सरवस वारि कै , सेवा तत्पर धाय ।

निःस्वार्थ किंकरि करै , सखीभाव कहलाय ॥4॥

निरखूँ छवि हिय धाम की , जो है सब सुख धाम ।

निवसति श्यामाश्याम  जहँ , अविचल पद अभिराम ॥5॥

पद – वृन्दावन छवि सब सुखसार ।

लघु विशाल तरु कल्पवृक्ष सम , देत सुमन सिंगार ॥

बेलिन रंग विरंग सुमन युत , सब ऋतु के अनुसार ।

इहाँ ऋतू सब प्रभु की दासी , मन  भावन साकार ॥

पग पग बाग सरोवर सुन्दर , भक्ति समर्पण सार ।

दिव्य कनक मणि मण्डित मन्दिर , महिमा अपरम्पार ॥

श्री राधा  वर कुंज  विहारी , रहत जहाँ सुखसार ।

जहाँ तहाँ सखियन की कुँजैं , सेवा रूप अपार ॥

ध्यान नमन इनकौ करिवे सौं ,भव सौं बेडा पार ।

किंकरि रूप मिलै अनुचरि व्है , सहज सुखन सुखसार ॥

पद—धन्य धन्य वृन्दावन धाम ।

गोलोक धाम के हृदय वसत है , सब विधि मन अभिराम ॥

कृपा साध्य कोउ कोऊ पावत ,  जीव पाइ विश्राम ।

राधा कृष्ण माधुरी मूरति , सब सुख पूरन काम ॥

यमुना कंकण चहुँ दिसि शोभित , कन-कन चिन्मय धाम ।

चार सरोवर अष्टमार्ग युत , बहु विधि वन सुख धाम ॥

मोहन महल अष्टसेवा कुंज , सेवा सम्पति धाम ।

अष्ट सखिन अनुचरि सखि कुंजन , बहु लीला के धाम ॥

ध्यान मान पूजन करि किंकरि , तब पावै यह धाम ।

श्री गुरु सखिन कृपा अंतर्गत , होइ वास इह धाम ॥

पद – जहाँ रहौ सोई वृन्दावन ।

तन धन गृह सबहीं वस्तुन कौ , प्रभु कौं करौ समर्पन।।

परिवारी जन आपु सहित हू , सेवक मानि सु अर्पन ।

अष्टयाम सेवा रुचि राखौ , नाम जाप मन अर्पन ॥

गुरु निष्ठा अति हिरदय राखौ , कृपा होइ तब श्री वन ।

मथुरा पुरी हृदय वृन्दावन , तब ही पहुँचे यह तन ॥

राधा माधव कुंज बिहारी , चरन पाय यह जीवन ।

किंकरि बनि सहजहि यहि रहनी , भव भंजन संजीवन ॥

श्री यमुना स्नान करि , वस्त्राभूषण धारि ।

गुरु सखियन कूँ नमन करि , किंकरि रस संचार ।। 8 ॥

ऋतु अवसर अनुसार अरु , गुरु सखियन अनुसार ।

सौंज साज संग लै चलैं , युगल सुखन सुख सार ।। 9 ॥

किंकरि सँग गुरु सखिन के , चलि आचारज कुँज ।

श्री युगल प्रिया रहती जहाँ , नख सिख सब रस पुँज ।। 10 ॥

नख सिख वपु श्रंगार अरु , सब सेवा साहित्य ।

रसमय रस वऱधन सदा , रस उद्दीपक नित्य ।। 11 ॥

श्री युगल  प्रिया की कुँज कौं , पुनि पुनि करत प्रनाम ।

जिन सुमिरे सहजहिं सुलभ , अष्टयाम सुख धाम ।। 12 ॥

पद

सजि बैठीं सिंगार मनोहर ।

रसमय वपु आभूषन रसमय , रसमय वाणी परम मनोहर ॥

भाल तिलक शोभा अति अनुपम , रस निकुञ्ज झलकात मनोहर ।

किंकरि जन जीवनि स्वामिनि हे , रसमय पदरज रसद मनोहर ॥

करि प्रनाम चन्दन धरत , अरु माला पहिराय ।

पुनि प्रनाम मन वच क्रमहिं , अपनो भाग सिराय ।। 14 ॥

मधुर बैन विनती करि , कृपा विनय भरपूरि ।

हरषित हिय सब मिलि चलैं , रंग कुँज सुख भूरि ।।  15 ॥

रति मंजरि गुरु सखिन संग , हितु हरिप्रिया कौ साथ ।

रंग कुँज में जाय कै , सब मिलि टेकें    माथ ।। 16 ॥

दोहा—निज गुरु सौं आचार्य तक , पूजत सब पद कंज ।

हौं अनुचरि सब विधि रहौं , अष्टयाम सुख पुंज ॥

रंगदेवी आचार्य जू , ललित विशाख सुदेवि ।

चम्पलता चित्रा तथा , तुंगविद्या इन्दुलेख ॥

श्री निम्बार्काचार्य जू , श्रीनारद गुरुदेव ।

परम गुरू सनकादि जू , हंस प्रभो सुखदेव ॥

करि प्रनाम चन्दन धरत , अरु माला पहिराय ।

पुनि प्रनाम मन वच क्रमहिं , अपनो भाग सिराय ॥

पद

श्री रंग कुँज शोभा अति अनुपम ।

अष्टयाम के विविध रंगमय , विविध भाव मय रसमय अनुपम ।।

विविध भाव उद्दीपक अलि मन , सेवा सुरस जनावत अनुपम ।

किंकरि जन आचारज अलिजन , सब मिलि भाव विभोरत अनुपम ।। 17 ॥

पद

नमो नमो रंगदेवी स्वामिनि ।

करुणामयी कृपा कारिनि हे , युगल नेह भाजन हे स्वामिनि ।।

अष्टयाम सेवा सुख दायिनि ,युगल प्रेम दायिनि हे स्वामिनि ।

किंकरि जन अनुचरि  कारिनि हे , चरन कमल बन्दौं हे स्वामिनि ।। 18 ॥

पद

(श्री) रंगदेवी की शोभा न्यारी ।

केसर कमल वरन अति अद्भुत , अरुन वस्त्र धारति अंग सारी ।।

अष्टयाम भावित आभूषन ,नाम रूप सेवा मन भारी ।

युगल वस्त्र आभूषन सेवा , रचत मनहिं मन अति सुख कारी ।।

भांति भांति सौं चँवर ढुरावति , युगल सुमुग्ध करावनि हारी ।

करुनामयी कृपा मूरति हैं , किंकरि जन सेवा सुख कारी ।। 19 ॥

पद – मोहन महल कनक मणि मंडित , कोटि सूर्य  सम सुन्दर लागै ।

अष्ट द्वार अरु विविध झरोखनि , द्वार भीति अति मनहर लागै ॥

त्रिवलय शिखर नेह की धुजमय , बहु स्तम्भ देखि सुख लागै ।

कल्प वृक्ष की छाँह मनोरम , आंगन राय निरखि मन लागै ॥

दोहा—अति सुन्दर पर्दा लगे , मणि मोतिन की माल ।

द्वार झरोखा रन्ध्र सौं , निरखौ दोऊ लाल ॥

पद – सोये युगल अनोखे लागैं ।

श्रीराधामाधव कुंज बिहारी , दिव्य नेह रस पागैं ।।

सुन्दर वदन सलोने भोरे , अंग-अंग अनुरागैं ।

किंकरि लखि यहि रूपमाधुरी , चिरजीवो यहि मांगैं ॥

दोहा— गावत गुन मिलि सब सखी , युगल जगावन हेतु ।

विविध बाजने बाजहीं , गायन स्वर समवेत ॥

पद– जागियै मम प्रान पियारे ।

राधामाधव कुंज बिहारी , अनुपम रस विस्तारे ।।

भोर भयो अरुनायी उदयी , दुरत चन्द्र अरु तारे ।

राग भैरवी अलिजन गावत , शुक पिक कोकिल सारे ॥

उठिये युगल दीजिये सेवा , मोरे नैनन तारे ।

श्री राधाप्रियाजू विनय करत हैं , युगल मुदित मुदकारे ॥

मंद मुसुकि छवि कोटि चन्द्र बलि , सखियन मोद महा रे ।

राधामाधव कुंज बिहारी , किंकरि जन के प्यारे ॥

पद

श्री युगल  प्रिया जू ललित बात कहि जुगल जगावैं ।

हितु हरिप्रिया अष्ट यूथेश्वरि , भांति भांति करि जतन जगावैं ।।

सब निसि श्रमित सुरत सुख सोये , नयन उनींद मंद मुसुकावैं ।

लखि छवि छाक छकी सब अलिजन ,सेवा सुरस तृषित तरसावैं ।।

जुग जुग श्रवन मधुर रस घोलत , ललित बात कहि जुगल जगावैं ।

(श्री) युगल प्रिया के मधुर बचन सुनि , दृग पट खोलि जुगल हरषावैं ।।

(श्री) रति मंजरि सह प्रेम परसि कै युगल हरषि हिय उठि बैठावैं ।

किंकरि जन हिय पोषन कारिनि , अलि जन जय जय कार मनावैं ।। 20 ॥

पद – उठि बैठे लागत अति सुन्दर ।

राधामाधव कुंज बिहारी , नैन उनींदे अलसत सुन्दर ॥

निरखि परस्पर जमुहावत हैं , परम सुधा पूरित दुहुँ सुन्दर ।

(श्री) युगल प्रिया जु बलि बलि किंकरि , कोटि काम छवि लागत सुन्दर ॥

श्री नवरंग विहारिणीभ्यो नमः

जै नव रंग विहारिणी , नववासा सुखकारि ।

जै श्री हरिप्रिया स्वामिनी , श्रीराधा सुकुँवारि ॥

जय जय श्री नवरंग विहारिणि । जय जय नव वासा सुख कारिणि ॥

जय जय श्री नव केलि परायनि । जय जय विश्वानन्द विधायनि ॥

जय जय श्री वृन्दावन रानी । जय जय पुरुषोत्तम सुखदानी ॥

जय जय श्रीमुख अद्भुत  शोभा । जय जय निज विलास रसगोभा ।।

जय जय श्री प्रीतम की प्यारी । जय जय सरस सरूप उज्यारी ।।

जय जय श्रीराधा गुन गोरी । जय जय मधुरा मधुरस बोरी ॥

जय जय श्री अति अमित अनूपा । जय जय सहज सुभद्र सरूपा ॥

जय जय श्री मोहन मनहारी । जय जय पद्मा प्रान अधारी ॥

जय जय श्रीअहलादिनि देवी । जय जय श्यामा सब सुख सेवी ॥

जय जय श्रीपिय-बल्लभ राधा । जय जय सारद सब सुख साधा ॥

जय जय श्री नव नित्य नवीना । जय जय परम कृपाल प्रवीना ॥

जय जय श्री सब सुख की धामा । जय जय देव देविका नामा ॥

जय जय श्री लावनिता देसा । जय जय सुन्दरि सरस सुवेसा ॥

जय जय श्री कल कोकिल बैनी । जय जय पद्मा हरि सुख दैनी ॥

जय जय श्री गुन रूप गँभीरा । जय जय इन्दिरा हर हीरा ॥

जय जय श्री छवि कोटि छबीली । जय जय रामा हिये बसीली ॥

जय जय श्री आनन्द अभिरामा । जय जय वामा सब सुख धामा ॥

जय जय श्री मन मोहन हरनी । जय जय कृष्ण प्रिया सुख करनी ॥

जय जय श्री रंग रूप रसाली । जय जय पद्माभा प्रतिपाली ॥

जय जय श्री रस बरषा करनी । जय जय श्रुतिरूपा श्रुति बरनी ।।

जय जय श्री परि पूरन कामा । जय जय भागवती भविभामा ॥

जय जय श्रीससि कोटि प्रकासी । जय जय माधवि हिये निवासी ॥

जय जय श्री वृन्दावन बसिता । जय जय असित सिता रस रसिता ॥

जय जय श्री जस जग विख्याता। जय जय गुन आकरि सुख दाता ॥

जय जय श्री महाप्रेम प्रसिद्धा । जय जय विसद बल्लभा रिद्धा ॥

जय जय श्री गुनगन आगारा । जय जय गौरांगी आधारा ॥

जय जय श्री क्ंचन दिवि अंगी । जय जय कुँवरि सुकेसि सुरंगी ॥

जय जय श्री छवि चित्र विचित्रा । जय जय पावन करन पवित्रा ॥

जय जय श्री अलि अलक लडैती ।जय जय कुंकुम कला बडैती ॥

जय जय श्री नव नित्य नवेली । जय जय सुखदा हितू सहेली ॥

जय जय श्री राधा निज नामिनि । जय जय श्रीहरिप्रिया जय स्वामिनि ॥

जय जय परम प्रेम रस बरसनि । जय जय परमा वन सुख दरसनि ॥

जय जय श्यामा जू अलवेली । जय जय माननि हितु सुखरेली ।।

जय जय माधवि रूप नवीना । जय जय लीला नित्य नवीना ॥

जय जय स्वामिनि निज मनमानी । जय जय मन मंजरि यशदानी ।।

जय जय अंग अनंग अनूपा । जय जय गौरांगी रस कूपा ॥

जय जय अगनित गुनगन गोरी । जय जय गुण मंजरि सुख भोरी ॥

जय जय दिव्य रूप की स्वामिनि ।जय जय रूप मंजरी भामिनि ।।

जय जय रस सर्वस विख्याता । जय जय रसमंजरि रसदाता ॥

जय जय प्रेम प्रसिद्धा देवि । जय जय प्रेमलता सुखसेवी ॥

जय जय श्रीवन सुरस पुंजरी । जय जय सुखद विलास मंजरी ॥

जय जय श्रीवन मधुरव करनी । जय जय शुक मंजरि सुख करनी ॥

जय जय अँग अँग रति रससिद्धा । जय जय रति मंजरि सुप्रसिद्धा ॥

जय जय किंकरि जन प्रिय स्वामिनि । जय जय युगल प्रिया सुहुलासिनि ॥

दोहा—शैया मोहन महल ते , कुंज मंगला लाय ।

अचवन दोउ करवाय कै , मंगल भोग लगाय ॥

पद—मंगल आरति सब मिलि गावौ ।

मंगल भोग मिश्रि माखन कौ , मंगल राग सरस मिलि गावौ ॥

राधामाधव कुंजबिहारी , मंगल मूल सुयश मिलि गावौ ।

मंगल आरति वारति अलिजन , सर्वस वारि चरन सिर नावौ॥

पद—मंगल कुंज बिहार करत , उद्यान निरखि दोऊ हरषावैं ।

कोकिल कीर परावत गिलहरि , शब्द सुनत दोऊ हरषावैं ॥

वृक्ष बेलि निरखत बिहरत दोऊ , स्नान कुंज में दोऊ आवैं ।

हौद फुआरौ जल भरे बर्तन , उबटन देखि दोऊ मन भावैं ॥

पद— उबटन ऋतु अनुकूल सुहावै ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव  , तन मन नेह बढावै ॥

अंग अंग सुग्ढायी रसमय , सुरति ताप मिट जावै ॥

नखशिख उबटन सने सोहते , जगमग छवि बलि जावै ।

कामतीर सी खडी बिनूनी , नैनन लाज लगावै ॥

किंकरि जन तृन तोरैं छवि पै , सब उबटन सुख पावै ॥

पद—स्नान कुञ्ज बैठे दोऊ चौकी , निज निज छवि दोउ देखैं री ।

निरखत गात परस्पर सकुचत , नयन पलक झुकि लेवै री ॥

श्याम सीस श्यामा जल डारत , श्यामा पिय पै डारै री ।

भरि भरि जल ज्यौं डारैं दोऊ , दोऊ दोउन पै वारै री ॥

पद – स्नान करत दोऊ खेलि सखी री ।

भरि भरि जल ऊपर दोऊ डारत , मलि-मलि अंग सुगन्ध सखी री ॥

उबटन मिस चुटकी भरि मोहन , श्यामा अंग उमंग सखी री ।

आभा अंग ललित अनुपम अति , किंकरि जन बलिहारि सखी री ॥

पद- फुआरौ झम-झम जल बरसावै ।

स्नान कुञ्ज जल जमुना जू कौ , झरझर हिय उमगावै ॥

श्री सर्वेश्वर राधा माधव ,नयन मूँदि हरषावै ।

निज निज गात परस्पर परसत , तन मन रस सरसावै ॥

सुरति ताप शीतल मन हरषित , विकसित वदन सुहावै ।

किंकरि जन बलि जायं छविन पै , ओठ बन्द रहि जावै ॥

पद – सखि समूह सँग जाय सरोवर , जल विहार दोऊ करत भली री ।

बांह पकरि डुबकी दोऊ लेवत , नील पीत  दोऊ कमल खिले री ॥

छिरकत छींटत दोऊ जल ऊपर , दोऊ दोउन पै विजय करी री ।

जल अरु घाट सखी श्रंगारित , मानहुँ  अगनित सुमन खिले री ॥

पद—आज दोऊ जल में तैर रहे ।

छह-छह कमल खिले अति सुन्दर , जल में क्रीडा करत रहे ॥

शिथिल तरनि फिरकनि बहु विधि सौं , कबहूँ गति सौं तैर रहे ।

श्यामाजू गति अति ही पकरी , विस्मित मोहन निरखि रहे ॥

स्वामिनी  जू जब मुरि कै देख्यौ , मोहन हरषित तैर रहे ।

तरनि तनूजा जल अति सुरभित , अंजुलि भरि-भरि सूँघ रहे ॥

श्री यमुना हिलोर जल छिरकत , पुनि-पुनि दोऊ तैर रहे ।

किंकरि जन लीला सहभागिनि , नव-नव क्रीडा करत रहे ॥

पद – श्री सर्वेश्वर राधामाधव , स्नान करत बहु देर भयी है ।

जल क्रीडा कौतुकमय लीला , करत विविध आनन्द छयी है ॥

सखियाँ बरजि मनाय रहीं अब , चलहु कुंज सिंगारमयी है ।

पौंछि अंग लपटाये दोऊ , चले दोऊ छवि सदा नयी है ॥

पद—बिनु श्रंगार छवी कहा बरनौ , नैनन पलक न झपक भयी है ।

मानहुँ रस और रूप धरे दोऊ , अंग कांति सुकुमार नयी है ॥

श्रीसर्वेश्वर राधामाधव , नहिं उपमा कोउ जात दयी है ।

किंकरि हारि परीं उपमा नहिं ,जाते ही निज प्रान दयी हैं ॥

पद—रत्न जटित श्रंगार कुंज में , कनक कला अति लागत प्यारी ।

झलमलात छवि मणिमोतिन में , बहु विधि रूप लखावत न्यारी ॥

रत्न हृदय निज विधि सौं बैठे , राधामाधव कुंज बिहारी ।

श्रंगार कुंज में अगनित छवि लखि , किंकरि जन मन अति बलिहारी ॥

पद—कनक कला युत मणिमय मण्डप , भांति-भांति सौं सुमन सजे ।

कनक सिंहासन चौकी दर्पण , आभूषण बहु थार सजे ॥

ऋतु अनुकूल वसन अति सुन्दर , बहु विधि चौकी आनि सजे ।

अंगराग चन्दन काजर सब , किंकरि जावक राखि सजे ॥

पद—श्री सर्वेश्वर राधा माधव , रुचि श्रंगारहिं साजौ जू ।

जीवन प्रान हमारे प्यारे , कंचन चौकी राजौ जू ॥

रंग बिरंग सजी पोशाकें , रुचिकर सो तुम साजौ जू ।

रत्न जटित आभूषन सुन्दर , रुचि अनुसारै धारौ जू ॥

सारी सुन्दर सजी राधिका , मोहन के मन भावत जू ।

सुन्दर धोती पटका धारें , श्यामा के मन भावत जू ।।

आभूषण रुचिकर पहिरावत , बेंदी भाल लगावत जू ।                      मोहन के सिर मुकुट पेच सब , सखिजन संग धरावत जू ।।

नख सिख दोऊ सजे सोहने , दर्पण निज छवि देखत जू ।

किंकरि अपनौ भाग सराहत , मन भरि दोऊ सेवत जू ॥

पद – सुरंग सारी जरी किनारी , सुरंग बागे जो आप धारौ ।

हरी जरी कौ लँहगा है भारी , नील ओढनी जो आप धारौ ॥

मोतिन माँग भरी अति सोहै , सीस पै सीसफूल मतवारौ ।

आसा नथ अलवेली सोहै , कानन कुण्डल झूमर वारौ ॥

उर मनिहार पदिक अति सोहै ,हथ हथ फूल सोह अति प्यारौ ।

मणिमय कंचन वलय विविध विधि , कर कमलन अति प्यारौ ॥

कटि किंकनी दाम अति सुन्दर , पायन नूपुर अति मदवारौ ।

नैनन कजरा हाथन मेंहदी , चरन महावर किंकरि वारौं ॥

पद—दोऊ नैनन कजरा देवैं ।

श्रीसर्वेश्वर राधा माधव , अरस परस सुख देवैं ॥

श्यामा श्याम नैन नैनन में , रुचिकर कजरा देवैं ।

बडे नयन अति रंजन मन के , केहि सौं उपमा देवैं ॥

करत हास परिहास सखीजन , नाक डिढौना देवैं ।

किंकरि जन बलिहारी नैनन , नैन हिये धरि लेवैं ॥

पद

श्री युगल  प्रिया जू पुष्प हार सेवा अति अनुपम ।

अनुचरि सुमन पुरोवति विधि सौं , निज इच्छा धागे अति अनुपम ।।

विच विच सुमन सहेलिन सुन्दरि , सहज सहज सजवति अति अनुपम ।

परस पाइ श्री युगल  प्रिया कौ  , सुमन सुमन विकसति अति अनुपम ।।

सुरति रंग प्रेरनि सोहनि कौं , सौरभ भांति भांति अति अनुपम ।

कला वन्त आचारज अलि जू , किंकरि जन सीखत अति अनुपम ।। 21 ॥

पद

प्रिया जू लालन सौं यौं पूँछें ।

लालन पुष्पहार हम धार् यौ , कहौ कौन अलि गूँथें ।।

रचना कला सुभग लखि सौरभ , मद भरि गति नहिं सूझें ।

प्रिया लखी श्री युगल प्रिया जु , कर गहि लालन बूझें ।।

युगल नेह लखि राधा प्रिया पै , श्री रति मंजरि रस बूडें ।

किंकरि जन हरषित गर्वित अति ,नयन नेह जल बूडें ।। 22 ॥

पद –आरोगत हैं भोग सिंगार ।

सिंगारित कंचन चौकी पै , सिंगारित कंचन कौ थार ॥

रूप रासि रस राशि भोग सब , मनकर्षण सब श्रुति के सार ।

अरस परस आरोगत दोऊ , चपल नयन मृदु हास अपार ॥

सजे धजे जगमगत विराजत , मणि-मणि छवि सुन्दर मन हार ।

किंकरि युगल भोग आरोगत , सखिजन पुनि-पुनि करि मनुहार ॥

दोहा—अचवनि करि आरति करत , वाद्य यंत्र बहु बाजि ।

नाचत गावत सखीजन , श्रंगार आरती साजि ॥

पद –श्री सर्वेश्वर राधामाधव , करुणा सिन्धु हमारे हैं ।

अगनित अलिजन संसेवित प्रभु , श्रीवन सुन्दर प्यारे हैं ॥

नाम जाप अरु ध्यान करै जो , तिन भक्तन रखवारे हैं ।

चरन कमल सेवा सुख दीजै , किंकरि भाव सँभारे हैं ॥

पद

श्री युगल प्रिया जू चँवर बनावत ।

ऋतु बसन्त सुन्दरि मंजरि सब , बलिहारिन अलि चँवर बनावत ।।

ग्रीषम अति अनुराग सुमन बहु , सुखदायिनि अलि चँवर बनावत ।

पावस परम प्रेम रस वर्धिनि , निकट अली घन चँवर बनावत ।।

अतनु शरद ऋतु परम मनोहर , सरस शशी अलि चँवर बनावत ।

शिशिर सुखद सुखदायक विवि कौं , श्री रंग देवी चँवर बनावत ।।

ऋतु हेमन्त अली आचारज , अनि किंकरि जन चँवर बनावत ।

युगल सदा सुख दायिनि स्वामिनि , भांति भांति के चँवर बनावत ।। 25 ॥

पद

श्री युगल प्रिया जू चँवर ढुरावति ।

अनुराग भरी अनुरागिनि रूपा , अति अनुराग सौं चँवर ढुरावति ।।

स्वर मालिका चँवर गति मनहर , लहर लहर सौं चँवर ढुरावति ।

किंकरि जन मन प्रेम हिलोरनि , आचारज अलि चँवर ढुरावति ।। 26 ॥

पद—सर्वस आप हमारे ।

श्रीसर्वेश्वर राधामाधव ,  जीवन प्रान हमारे ॥

तात-मात सम पालन कर्ता , सब विधि हितू हमारे ।

बिनु कारन करुणामय ठाकुर , चरन सरन रखवारे ॥

सर्वोपरि वृंदावन रज दै , सुधरे भाग हमारे ।

अष्टयाम सेवा सुख दीजै , किंकरि जन बलिहारे ॥

दोहा—स्तुति करि दर्शन किये , चरनन किये प्रनाम ।

लै चलिं कुंज बिहार कौं , सहचरि कुंजन धाम ॥

पद—युगल वर कुंजन कुंजन बिहरत ।

श्री सर्वेश्वर राधामाधव , संग सखीजन बिहरत ॥

तरु बेलिन नभ की शोभा लखि , मृदु अवनी पर बिहरत ।

गौर श्याम नभ आभा मण्डल , लखि छवि दोऊ बिहरत ॥

छुअत सुमन पल्लव मुसुकावत , मन्द मन्द गति बिहरत ।

शुक पिक केकी रव मन मोहत , सुनि गुनि समुझत बिहरत ॥

वृक्ष लता झुकि कुसुमांजलि झर , विस्मित दोऊ बिहरत ।

श्रीवन चिन्मय सेवा तत्पर , किंकरि जन सँग  बिहरत ॥

पद—संग वृषभानुजा धूप में विराजि रहे ,नन्दलाल मृदुल गात शिशिर सौं पिरात हैं।

लखैं मुख भानुजा कौ नैनन चकचौंधी होत, नभ भानु हेरि कै हृदय मुसुकात हैं ॥ भानुजा के दरसन करि तुलना नहिं जानि कछु ,श्याम घन नभ माँहि भानु दुरिजात हैं । किंकरि किशोरी सकुचायी कछु भाव जानि , पलक झपकाय श्याम अंग लपटात हैं ॥

पद—हंस कुंज में आज विराजे ।

श्री सर्वेश्वर राधामाधव , श्रीवन अवनि विराजे ॥

मुक्तासन शोभा लखि अद्भुत , अलिजन मन अनुरागे ।                      चरन पूजि मोती धरि हंसन , विनवत अति अनुरागे ॥

करत नृत्य गति मन्द दिखावत , रोम-रोम रस पागे ।

बिहँसि परस्पर दोऊ सराहत , निकट बुलावन लागे ।।

मोतिन माल उतारि चुगावत , निज-निज कर अनुरागे ।

कुंज बिहार विचित्र भयौ अति , किंकरि जन अनुरागे ॥

पद— आज नव लीला अलिजन देखत ।

श्री सर्वेश्वर राधामाधव , श्रीवन सुषमा देखत ॥

कुंजबिहार करत हँस बोलत , नव निकुंज कौं देखत ।

कलरव गान सुनत दोऊ हरषित , कृपाकोर सौं देखत ॥

बाल मराल आय चरनन में , बैठि गौरमुख देखत ।

कर परसत श्यामा जू चूमत , हंस बाल मुख देखत ॥

श्यामा कृपा बाल हंस पै , श्याम हृदय अति लेखत ।

हंस रूप धारो मनमोहन , नृत्य करत अरु टेरत ॥

हंस कृष्ण राधा चरनन में , झुकि-झुकि बैठत देखत ।

किंकरि श्रीवन स्वामिनि राधे , भेंटि अंक भुज मेलत ॥

पद—घेरि लिये दोउ मृग छौना बहु ।

श्रीसर्वेश्वर राधामाधव , कुंज बिहार कियो कौतुक बहु ॥

चरन वसन कर परसत सूँघत ,  नैनन नेह दिखावत सब बहु ।

शुक पिक डारि बैठि गुन गावत , चौंच सुमन बरसावत सब बहु ॥

परसत परम प्रेम मय दोऊ , उछलत कूदत गो छौना बहु ।

वृन्दावन चिन्मय सब विधि है , किंकरि प्रेम धरत रूपा बहु ॥

पद—चिडियां चहक-चहक गुन गावैं ।

राधे-राधे कृष्ण-कृष्ण कहि ,फुदक-फुदक उडि जावैं ॥

श्यामा-श्याम चरन नख परसत , निज प्रतिबिम्ब लखावैं ।

परसत युगल जबहिं निज कर सों ,फुदक दूरि उडि जावैं ॥

पुनि आवत उडि बैठि अंक में , अपनो भाग सिरावैं ।

राधे-राधे कृष्ण-कृष्ण सुनि , किंकरि जन सुख पावैं ॥

पद—छाँह खेल दोऊ हँसि खेलैं ।

श्री सर्वेश्वर राधामाधव , लौटत हँस मिलि खेलैं ॥

दोउन छाँह परत अवनी पै , चलगति निज-निज खेलैं ।

कौन छाँह गति रूप धरै भू , दोऊ मिलि कै खेलैं ॥

मोहन छाँह दिखत सखि रूपा , अलिजन हँसि उर मेलैं ।

श्यामा छाँह किरीट दाहिनी , श्याम स्वरूप दिखेलैं ॥

छाँह दिखायो भेद दुहुन कौ ,  भेदाभेद दिखेलैं ।

किंकरि लीला विमल कारिणी , बडे भाग लखि मेलैं ॥

दोहा—कुंज बिहार सौं आइ कै ,  बैठे भोजन कुंज ।

चौकी सजि भरि थार कौ , व्यंजन रसमय पुंज ॥

श्रीसर्वेश्वर राधामाधव , आरोगौ रस भोग ।

सखिजन की यहि भावना , किंकरि जन यहि योग ॥

पद – राज भोग आरोगत रसमय ।

श्री सर्वेश्वर राधामाधव , नख शिख अद्भुत रसमय ॥

भोजन कुंज विराजे चौकी , धरे थार भरि रसमय ।

नित नव व्यंजन अद्भुत सेवत , नाम कहाँ लौं रसमय ॥

अगनित भोग रखे दोउ आगे , सखिजन निर्मित रसमय ।

अरस –परस आरोगत रुचि सौं , लखियत छवि विवि रसमय ॥

श्यामा मुखगत कौर देत प्रभु , बिनवत पुनि-पुनि रसमय ।

मोहन लेत प्रसाद मगन ह्वै , नयन बिन्दु भरि रसमय ॥

उमगि राधिका श्याम जिमावत , सखियां हुलसत रसमय ।

जल पीवत अँचवन करी बीरी , दीन्हीं किंकरि रसमय ॥

पद—युगल मुख पान की पीक भरी ।

अधर लाल फूले दोऊ गलुआ , मानहु अमिय भरी ॥

कहत न कछु मुसुकात जात हैं , नैनन नींद भरी ।

मणिमय पीकदानि आगे धरि , किंकरि उमगि भरि ।।

दोहा- राज भोग आरति करत , प्रकटत रस को राज ।

किंकरि जन जय जय करत , चीते मन के काज ॥

लावत मोहन महल में , अलसाये दोउ जानि ।

सुभग सेज पै फब रहे , करत न कोऊ कानि ॥

पद—युगल की रस भरी बतियां ।

सखियन कौ गुन नेह सराहत , सुमिरन करते बतियां ॥

हाव भाव कर गति मुख शोभा , मनहुँ सुमन झर बतियां ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , कृपा कारिणी बतियां ॥

जन कौं नहिं अदेय कबहूँ कछु , सहज सनेही बतियां ।

किंकरि भाग बनावत बिगडौ ,  जन संबल रस बतियां ॥

दोहा- शैया मोहन महल में , बैठे दोउ अलसाय ।

निद्रित छवि अति फवि रही , किंकरि जन बलिजाय ॥

श्री सर्वेश्वर राधामाधव , पौढे सेज सुहाय ।

चरन बंदि सब अलीजन , निकसीं बाहिर आय ॥

आचारज गुरु सखिन कौं , निज कुंजन पहुँचाय ।

आयीं अपनी कुंज में , नाम जपै मनलाय ॥

अपराह्न बेला लखी , उत्थापन कौ साज ।

ऋतु अनुसारिन लैं चलीं , मिलि सँग सखी समाज ॥

पद—अपराह्न कौ समय जानिकै , युगल जगाए सखी समाज ।

उठहु मनोहर रसिकन के धन , पुरवहु मन के सिगरे काज ॥

नव आभूषण वसन धराये , साजे सकल नवीने साज ।

मन्द मन्द मुसुकत निकसे विवि , संध्या कुंज पधारत राज ॥

ऋतु अनुकूल सुखासन राजत , संध्या भोग रितुन के साज ।

किंकरि संध्या कुंज अनौखी , सकल सुखद सखियन सिरताज ॥

पद—सन्ध्या भोग सुखद दोऊ पावत ।

ऋतु फल पेय मिठाई बहु विधि , रुचि-रुचि दोऊ पावत ॥

हास करत मुख देइ परस्पर , सखिजन के मन भावत ।

किंकरि भोग अरोगि अचइ जल , सकल सखी सुख पावत ॥

पद—संध्या वन बिहार यमुना तट ।

छत्र चँवर जल झारी लै लै , पान डबा अरु करपट ॥

पीकदानि सिंगारदानि अरु , मुकुर माल आसन पट ।

विहरत निरखत श्रीवन शोभा , अरु धारा यमुना तट ॥

हास विलास युगल सखिजन कौ , तान मान वंशीवट ।

किंकरि जीवन जीवनि सब विधि , विवि विहार यमुना तट ॥

पद – वन विहार विहरत दोऊ नीके ।

श्री सर्वेश्वर राधामाधव , मन्द मन्द गति विहरत नीके ।।

हँसत हँसावत कबहुँ लजित ह्वै , श्रीवन अवनि बिलोकत नीके ।

किंकरि जन विजयी मुसुकावत , बात न बनत मौन गहि नीके ॥

पद—अद्भुत वन विहार सब देख्यो ।

वन विहार झर सुमन विविध ही , तरु विशाल इक देख्यो ॥

पँचदल दशदल शतदल कुसुमनि , झरत युगल पै देख्यो ।

श्री   सर्वेश्वर   राधा   माधव , हरषित मन नभ देख्यो ॥

सुमन सहसदल तरु सिर ऊपर , श्यामा  जू नै देख्यो ।

निज कर लेन चहत श्यामा जू , होइ न सम्भव देख्यो ॥

अलि विमान बनि हरषित आयी , श्यामा जू मन देख्यो ।

चढे विमान शिखर तरु परस्यो , पद वन्दन तरु लेख्यो ॥

सुमन सहसदल पाइ स्वामिनी , भयौ हर्ष केहि लेख्यो ।

चढी विमान निरखि शोभा वन , करत अचम्भौ देख्यो ॥

सुखद विमान विहार युगल कौ , कुंज-कुंज सब देख्यो ।

किंकरि श्रीवन की शोभा लखि , हृदय वास करि लेख्यो ॥

पद – सखि ! निरखौ वृन्दावन की शोभा ।

चहुँदिसि यमुना कंकण मनहर , मणिमय तट की शोभा ॥

अष्ट दिशा अठद्वार महल तट , सखिन नाम सौं शोभा ।

तरु विशाल नभ वन विभाग में , गहन कुंज अति शोभा ॥

सुन्दर तरु बेलिन मध्यम छवि ,  लीला स्थलि शोभा ।

क्षुप लतिका उद्यान सुमन युत , बहु विधि आसन शोभा ॥

रूप स्वरूप मान मधुर कहैं , चार सरोवर शोभा ।

वन उद्यान सहचरिन कुंजै , अनुचरि कुंजन शोभा ॥

मोहन महल राय आंगन युत , कल्प वृक्ष की शोभा ।

अष्टयाम सेवा अठ कुंजैं , किंकरि जन मन  शोभा ॥

पद—नृत्य करत मिलि बहु मयूर ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , आवत निकट मयूर ॥

नृत्य कला कौशल दिखलावत , पंख प्रसार मयूर ।

झुण्ड-झुण्ड तरु भूमि चहूँ दिसि , नाचत विविध मयूर ॥

मोहनि-मोहन हिय उमंग भरि , नाचत संग मयूर ।

चरन-चरन गति ग्रीवा मटकनि , फिरकनि संग मयूर ॥

पीउ पीउ सुर अति मदमातो , घोलत रंग मयूर ।

किंकरि जन कौतूहल देखत , धनि धनि भाग मयूर ॥

पद –करत विमान विहार दोऊ जन ।

पाछिलि बात सुमिरि श्यामा जू , कही श्याम सौं मुद मन ॥

मोहन महल विमान चढे नभ , देखत कुंजन कुंजन ।

नभ ही नभ दोउ श्रीवन विहरत , अलिजन निज निज कुंजन ॥

जय-जयकार करत सहचरि सब , नभ श्रीवन धुनि गुंजन ।

युगल लुटावत नभ सौं भू पर , सुमन सुमन मन रंजन ॥

अद्भुत मोद भयौ सबही कै ,  हँसत-हँसत लुठि रंजन ।

श्रीयमुना तट उतरि विराजे , कालिन्दी करि पूजन ॥

अग्रअली तहँ आरति कीन्हीं , सन्ध्या स्तुति संकीर्तन ।

किंकरि सहज सनेही दोऊ , बलिहारी सब सखिजन ॥

दोहा – वन विहार करि श्रमित अति , आवत व्यारू कुंज ।

व्यारू भोग आगे धरौ , सखियन आतुर मंजु ॥

पद— ब्यारू भोग अरोगत दोऊ ।

वन विहार सुख श्रमित मुदित व्है , व्यारू कुंज पधारे दोऊ ॥

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , चौकी मृदुल विराजे दोऊ ।

व्यंजन विविध परोसे रसमय , लखि मुसुकावत पुलकत दोऊ ॥

रस वर्धक रसप्रेरक व्यंजन , अरस-परस मुख देवत दोऊ ।

बिच-बिच मेवा दूध अरोगत , हँसि व्यंजन सुख पावत दोऊ ॥

किंकरि जन मनुहारि पवावैं , चिरजीवो रस पावो दोऊ ।

तृपति भये अचवनि करि बैठे , बीरी पान अरोगत दोऊ ॥

दोहा— व्यारू भोग अरोगि कै , हरषित बीरी लेत ।

निद्रालस वश व्है गये , नैनन सौं संकेत ॥

पद – युगल की शयन आरती कीजै ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , नैनन में धरि लीजै ॥

अष्टयाम सेवा सुख सम्पति , सर्वस दै कै लीजै ।

नख शिख आरति वारति प्रभु की , हरषित उचरत जै जै ॥

नवल किशोर किशोरी जोरी , निज चरनन रख लीजै ।

रहौ प्रसन्न सांवरे गोरी  , आरत सब हर लीजै ॥

दोहा—शयन आरति वारि कै , चरनन में सिर नाय ।

निद्रालस वश युगल कौं , शैया पै पहुँचाय  ॥

पद –अति कोमल सुख शैया ।

मोहन महल युगल सुखकारी , बड भागिनि यह शैया ॥

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , सोवत हौं बलि जैया ।

शब्द न उचरि मौन छवि निरखौ , किंकरि भाग सरहिया ॥

पद—युगल के चरनन पै बलिहार ।

का नवनीत कमल केसर मृदु , ये पद अति सुकुमार ॥

का गुलाब जलजात अरुणिमा , सब उपमा गईं हार ।

का अमृत अमृत जीवनि ये , सकल सुखन विस्तार ॥

का तरु कल्प मनोरथ दायक , यही मनोरथ सार ।

श्री  सर्वेश्वर राधा माधव , पद किंकरि बलिहार ॥

दोहा—यूथेश्वरि आचार्य अलि गुरु रूपा के संग ।

रास कुंज शोभा करत , उर अनुराग अभंग ॥

जुगल जगाये जाय कै , इच्छा सखि धरि रूप ।

नव नूपुर सिंगार करि , नख शिख अमिय अनूप ॥

रंग देवी कर बद्ध व्है , रास थली दोउ लाय ।

सिंहासन बैठे लखें , रस मण्डल मन भाय ॥

तुंग विद्या झ्ंकृत किये , तन मन वीणा तार ।

थाप दयी मिरदंग पै , बाढ्यो रंग अपार ॥

पद—रस रास रसिक वर कौ ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , श्रीवन निज घर कौ ।।

तन मन रास रसत दोउन के , सुनि रव नूपुर कौ ।

बजत मृदंग पखावज वीणा , वेणू सुर रस कौ ॥

रास कुंज सब नृत्य करत हैं , युगल प्रीति चसकौ ।

किंकरि कंकण किंकिनि बाजत , झंकृत रस मन कौ ॥

पद – गायन होड परी ।

गावत श्याम तान मुरली पै , राग उल्लास भरी ॥

सँग-सँग गावत शुक पिक सुर में , सखियन संग ररी ।

उमगि राधिका गान सुरीलौ ,सहज सुहाग भरी ॥

लेत सके नहिं स्वर शुक पिक सखि , ताते मौन धरी ।

सब विधि प्रबल कलानिधि श्यामा , किंकरि चरन परी ॥

पद –बजावत बाँसुरी श्यामा ।

राधा प्रिया राग सुर बोलत , मुरली सौं श्यामा ॥

वृन्दावन सब विधि रस बाढ्यो , सुधि नहिं सब वामा ।

मोहन मदन मोह रस कम्पित , चरन परे श्यामा ॥

मुरली धरि मोहन उर लाये , रस सरोज श्यामा ।

किंकरि सकल कला रसनिधि तुम , संजीवन श्यामा ॥

दोहा – अष्ट सखी संग लै चलीं , युगल व्याहुलो कुंज ।

व्याह रचावत सबहि मिलि , सकल पुण्य को पुंज ॥

पद – सखियां करत व्याह की रीति ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , जोरत प्रीति की रीति ॥

करि उबटन दोऊ अन्हवाये , सकुचत सुन्दर रीति ।

विविध वसन आभूषण धारे , नैनन कजरा रीति ॥

सुरंग ओढनी पटका धारे , बरना बरनी रीति ।

मण्डप व्याह पधारे दोऊ , किंकरि व्याह सुरीति ॥

पद—बुलावौ व्याह सखी कौं आज , करैं वो व्याह की सब रीति ।

नित्य नवीने दुलहिनि दूलह , करौ नव व्याह की नव रीति ॥

बनायी मुख मरवट दोऊ , हरी  मन व्याह की सब रीति ।

बँधे कर कंकणे सुन्दर , ललित कर व्याह की यहि रीति ॥

करौ गठ जोड पट दोऊ , दोऊ मन व्याह की यहि रीति ।

पढें सखि वेद साखोच्चार , पुण्यमय व्याह की सब रीति ॥

श्याम कर देवैं श्यामा हाथ , सरस अति व्याह की यहि रीति ।

हरष हिय श्याम श्यामा जू , यही सब किंकरी जन रीति ॥

दोहा—नित्य नवीनी राधिका , नित्य नवीने श्याम ।

नित्य व्याह जोरैं भलौ , नित्य नवीने धाम ॥

पद— सखियां गारी गाय सुनावैं ।

मोहन सकुचि नयन नीचे करि , मंद-मंद मुसकावैं ॥

कर सौं मुख कौं ढांपि मनोहर , विबस मौन रहि जावैं ।

किंकरि या छवि पै तिन तोरैं , हिरदय बलि बलि जावैं ॥

पद—मोहन मोह नहीं कछु तुमकौं ,  भलौ व्याह क्यौं कीजै हो ।

मातु-पिता नहिं कोउ तुम्हारे ,सखियन के बल जीजै हो ॥

भाई उधार बनायो शेष कौ , शंख चक्र सोइ कीजै हो ।

वृजहि चुरायो माखन घर-घर , अब सोइ काज न कीजै हो ॥

रहहु न भूखे लाजन मोहन , पंच भोग हम दीजै हो ।

राजभोग श्रंगार मंगला , उत्थापन व्यारू कीजै हो ॥

कहा मिलौ रस वामन व्है कै , श्यामा जू हम दीजै हो ।

हाथ पसारौ अपनो मोहन , श्यामा जू कर लीजै हो ॥

देखौ मोहन रंग आपनो , मीठे-मीठे बोलत हो ।

जैसे कोकिल भली लगै तिमि , तुमहूँ सो रस घोलत हो ॥

कहा कहें हम तुमसौं मोहन , श्यामा जू सुख दीजै हो ।

इन पद पंकज किंकरि ह्वै कै , तुम हू सब सुख लीजै हो ॥

दोहा—व्याह कुंज में व्याह करि , गावत गीत रसाल ।

दूलह दुलहिनि लैं चलीं , महल मोहनी जाल ॥

पद –गावौ बधायी व्याह की , अनमोल बधायी लेहु ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , दूलह दुलहिनि एहु ॥

वृन्दावन की अनुपम जोरी , नैनन में धरि लेहु ।

अनंत कोटि ब्रह्माण्ड रचे इन , पद नख आभा सेहु ॥

तौऊ भोरे सरस सलोने , अगनित गुननिधि एहु ।

सेवा किये प्रीति उर मानत , शरनागत पै नेहु ॥

ब्याह बधायी सब मिलि गावैं ,चरनन में रखि लेहु ।

करौ किंकरी सेवा सुख की , जन्म सुफल करि देहु ॥

पद – मौरी मौर धरें सिर सोहैं , दूलह दुलहिनि आज हो ।

अद्भुत मरवट मुख पै सोहै ,नैनन में अति लाज हो ॥

हाथन मेंहदी रची सुहानी , सुधा सिन्धु रस जाल हो ।

पद नूपुर धुनि मंगल बाजे , चालत मनहुँ मराल हो ॥

ब्याह वसन पहरें छवि छलकें , छवि पै छवि बलिहार हो ।

अंग अंग आभा दीपति ज्यौं ,घन सौदामिनि माल हो ॥

श्री सर्वेश्वर राधामाधव , तुम हमरे उर हार हो ।

गावत ब्याह उछाह सखीजन , नाचत दै दै ताल हो ॥

दोहा—दूलह दुलहिनि पालकी , बैठारे रंग देवि ।

किंकरि गौने लै चलीं  , महल मोहनी सेवि ॥

पद–बरना बरनी बैठे दोऊ , सिबिका रुचिर सजायी है ।

झिलमिलात मोती मानिक सौं , रत्न जटित सुखदायी है ॥

दम्पति सम्पति श्रीवन की यह , सखियन की मन भायी है ।

ब्याह कुंज सौ गौने कों लै ,मोहन महल पठायी है ॥

दोहा—गौनौ  मोहन महल में , सब विधि मन कौं मोह ।

बैठारे लै जाय कै , दूलह दुलहिनि सोह ॥

शैया पै बैठे दोऊ , सकुचत सखियन मांहि ।

पलक झपक निद्रित भये , पौढाये विवि तांहि ॥

मन ही मन आशीष दै , करैं चरन गुन गान ।

दुलहिनि दूलह युगल वर , हौ तुम जीवन प्रान ॥

पद—देखौ सखि सोवत सुन्दर लागैं ।

नील पीत जलजात खिले ज्यौं , कन कन रस अनुरागैं ॥

कंचन नील मणी आभा ज्यौं , कोटि सूर्य सम लागैं ।

नील पीत में पीत नील में , छाया अद्भुत लागैं ॥

मानहुं अमिय अनन्द जुरे हौं , प्रमुदित उर अति लागैं ।

किंकरि लखि यहि रूप माधुरी , रोम रोम रस पागैं ॥

पद — फूलन शैया सोये सुकुमार ।

बेला जुही कुन्द मृदु शैया , शुभ्र सुगन्धित सार ॥

गोट गुलाब कदम्ब चम्प की ,सब विधि मनहर मार ।

सोए श्रमित ग्रीष्म सुख पावत , तन मन हित सुखकार ॥

सुधि नाहीं मुख सम्मुख दोऊ , मूँदि नयन छविधार ।

किंकरि जन बलिहारी जावैं, चिर जीवो सुकुमार ॥

पद—जो इन पद पंकज कौं ध्यावै ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , सरस छाँह सुख पावै ॥

भव के पाप ताप नहिं व्यापैं , सुख सम्पति सब पावै ।

वास मिलै श्री वृन्दावन में , किंकरि पद वह पावै ॥

पद—अष्ट सखिन गुन गावौ रे ।

श्यामा श्याम सनेह स्वरूपा , इनकी कृपा मनावौ रे ॥

युगल कृपा लीला विस्तारिनि , अष्टयाम सुख पावौ रे ।

इन अनुचरि अनुचरि किंकरि व्है , श्रीवृन्दावन पावौ रे ॥

दोहा—संग सखिन सौं हरष मिलि , निज निज कुंजन जाय ।

निज शैया पै बैठि कै , पावन चित्त लगाय ॥

गुरु सखियन के प्रेम सौं , बाढत प्रभु पद प्रेम ।

सब विधि तिन सेवा किये , किंकरि पद मिलि क्षेम ॥

अष्ट सखी आचार्य सखि , गुरु सखियन पद वन्दि ।

अष्टयाम सुमिरौ निसा , सोवहु परमानन्दि ॥

कोटि यज्ञ कोई करै , अनंत तीर्थ करि लेय ।

अष्टयाम सम लेश नहिं , किंकरि हिय धरि लेय ॥

पाठ किये हिय ध्यान धरि , पावै दुर्लभ राज ।

अष्टयाम सेवा सुखद , श्रीवन रसमय साज ॥

नाम जाप संग पाठ करि , गुरु चरनन आधीन ।

निज गृह प्रभु सेवा करै , होवै किंकरि दीन ॥

राधाकांत वत्स हौं , गुरुजन किंकरि खास ।

अथ वाणी श्री धाम  की , जन हित कियो प्रकास ॥

॥ इति सेवा सुख सम्पूर्णम् ॥

अथ उत्साह सुख

पद—गावत राग बसन्त कोकिला ।

वृन्दावन सब विधि हितकारी , शरणागत हित कों किला ॥

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , भक्त वृन्द मन कों किला ।

पाप दोष दुःख नाहिं सतावै , मन वश कारण कों किला ॥

कलि माया दोउ हारे बैठे , नहिं प्रवेश इनकों किला ।

किंकरि जीवन धर्म भक्तिमय , सदा बसन्ती कोकिला ॥

पद – छायो बसन्त वृन्दावन धाम ।

तरु बसन्त नव पत्र सुमन मय , नभ है सुन्दर श्याम ॥

धूप सुनहरी अंगकांति सम , श्री राधा अभिराम ।

कन-कन युगल भाव दरसावत , सखियन मन सुख धाम ।।

तत्सुख भाव होत खग कलरव , मृग कूदत श्री धाम ।

किंकरि भाव जगावत अभिनव , पराभक्ति मय धाम ॥

पद— वृन्दावन  सब भांति बसन्ती ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , साजे सब सिंगार बसन्ती ॥

सुरतरु सम तरु बेलि बसन्ती , सखियन के मन भाव बसन्ती ।

कंचन थार बसन्ती सरसौं , चन्दन पुष्पहार बासन्ती ॥

प्रिया पूजि पिय भये बसन्ती , प्रिय अनुराग प्रिया बासन्ती ।

गावत वादत नाचत सखिजन , किंकरि जन मन बसन्ती ॥

पद—खेलत बसन्त वृन्दावन धाम ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , अष्ट सखी अभिराम ॥

कंचन आभा श्री राधा जू , प्रियतम सुन्दर श्याम ।

इत्र गुलाल रंग चन्दन सौं , चर्चित ललित ललाम ॥

नृत्य करत दोउ लाल लाडिली , राग बसन्त सुनाम ।

नृत्य करत तरु बेलिन सहचरि , झरत पुष्प सुखधाम ॥

मण्डल सुमन विचित्र रंगमय , बैठे श्यामा श्याम ।

किंकरि सुमन बसन्ती अवनी ,  अद्भुत है यहि  धाम ॥

पद – आओ वृन्दावन होली खेलें ।

राग द्वेष कौं त्यागि प्रेम रंग होली खेलें ॥

सुमति सुभाव गुलाल रंग मिलि होली खेलें ।

जन सेवा पिचकारि रंग मिलि होली खेलें ॥

सरवस अपनौ वारि प्रभू संग होली खेलें ।

प्रभु सेवा संग भाव रंग मिलि होली खेलें ॥

जग के रंग परैं कल फीके इन सौं हम का होली खेलें ।

जग के संग र्हैं नहिं कल कौं इन सौं का हम होली खेलें ॥

जन्म जन्म हम हरिजन संगी इन सौं ही हम होली खेलें ।

किंकरि श्री गुरु चरन सरन रहि भाव सरस हम होली खेलें ॥

पद—होली खेलि रहे दोऊ चन्द ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , रसमय आनन्द कन्द ॥

हँसत हँसावत रंग लगावत , उरखत अमित अनन्द ।

किंकरि मोहन महल रंगमय , बिनु रंग होरी फन्द ॥

पद –आजु सखि कैसी होरी खेलत ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , सब सखियन कौं हेलत ॥

रंग गुलाल अतर चन्दन सौं हम दोऊ होरी खेलत ।

को जीतो को हारो हम में , करी निरनय सब मेलत ॥

दोउ दोउन के अंग सजावत , पत्रावलि उर मेलत ।

चन्दन रंग गुलाल पत्र छवि , सजि बैठे दोउ देखत ॥

प्रीति रीति भीजे दोउ देखत , चित्र लिखे से देखत ।

किंकरि कलावंत यह होरी , बडो भाग रहे देखत ॥

पद—वृन्दावन में होरी ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , संग सखिन मन होरी ॥

पचरंगी पोशाक पहिरि कै , डोल विराजत होरी ।

विविध गुलाल पुष्प अतरन सौं , खेलत दोऊ होरी ॥

भाल गुलाबी लाल गाल पै , हरौ चिबुक रंग होरी ।

सीसी अतर उडेलत दोऊ , नेह नयन झपकोरी ॥

पुनि पुनि सुमन पंखुरी डारत , सुमन रंग चहुँ ओरी ।

किंकरि जन बलिहारी जावैं , जय जय धुनि चहुँ ओरी ॥

पद—होरी की धमार रंग उडत गुलाल , श्यामा श्याम दोउ भये रंग लाल हैं ।

देखौ कैसौ खेल रहे रंग उडेल , कौन बाल कौन लाल जाने नहिं जात हैं ॥

आज वृजराज की चतुरता कहाँ गयी , सुकुमारी श्यामा जू वीरता दिखात हैं ।

भरि भरि रंग डारैं कुसुम कमोरी मारैं , प्यार भरी मार पै किंकरी बलिजात हैं॥

पद—फूलन कौ सिंगार साजि , दोउ खेलत होरी ।

सुमन सिंघासन बैठि आजु  , दोउ  खेलत होरी ॥

सजि सजि जुरौ समाज , सखिन दोउ खेलत होरी ।

धुजा मध्य में बाँधि  , सखिन दोउ खेलत होरी ॥

सखियन पूजे युगल चरन दोउ खेलत होरी ।

गावत फाग रसाल स्वरन दोउ खेलत होरी ॥

उड्त अबीर गुलाल रंग दोउ खेलत होरी ।

बरसत पंखुरि रंग रंग दोउ खेलत होरी ॥

केसर पिचकारी मारैं दोउ खेलत होरी ।

हो हो हो दोउ शब्द उचारैं दोउ खेलत होरी ॥

वृन्दावन रस बरसत दोउ खेलत होरी ।

किंकरि जन भाग मनावैं  चिरजीवो यहि  होरी ॥

पद—होरी में गोरी गावत गारी ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , सुनिये बात हमारी ॥

वामन व्है बलि द्वारे ठाडे , याचत लाज न हारी ।

भये वराह नृसिंह मीन तुम , जावत लाज हमारी ॥

आये हमसौं होरी खेलन , हमारा कुलवंती नारी ।

(श्री) राधाजू के पांय परौ तुम , तब सँग होंय तिहारी ॥

पद—सखी सुनहु तुम हमरी बात ।

वामन मीन वराह भये हम , लाज तुम्हारी जात ॥

मेरौ नाम जपौ तुम निसिदिन , कहौ न सांची बात ।

हिय में नेह समर्पण सर्वस , कबहूँ नाहिं अघात ॥

देवी देव संत तीरथ सौं , मांगत प्रभु पद नेह ।

होरी में अब बात बनावत , लाज धरम नहिं गेह ॥

वृज में चोर बनायौ मोकौं ,तुम्ह सौं नाहि बसात ।

होरी में हौं किंकरि बनिहौं , श्रीजी पद जलजात ॥

पद—बन्दरिया ओढ ओढनी बैठी ।

लम्बौ घूँघट काढि हिलत रहि , यमुना तट पै बैठी ॥

सखियन सीख अनुचरी प्रिय बनि , युगल अनन्दित बैठी ।

तुंग विद्या जू कही युगल सौं , देवी पूजौ आज ।।

फागुन पून्यौ श्री यमुना तट , पूरन होवैं काज ।

रवि तनुजा संग दोऊ पूजत , मुसुकत सखियन लाज ।।

मोहन भोग लगावहु याकौं , लेहु असीस समाज ।

ज्यौ घूँघट खोलौ मोहन नै , देखि बन्दरिया बैठी ।।

सखियन रंग उडायो हिलिमिलि , होरी है सरकार ।

किंकरि सुमन हास रस होरी , होवै जय जयकार ॥

पद—श्रीवन विहरत रंग बढ्यो ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , फाग उमंग बढ्यो ॥

श्री श्यामा जू सेन सेन करि , सखियन रंग बढ्यो ।

श्री यमुना तट जाय विराजे , भाव अनंग बढ्यो ॥

माधव घेरि लिये सखियन नै , श्यामा रंग ढरयो ।

किंकरि दीन सांवरो देखत , श्यामा चरन परयो ॥

पद—बन्यौ फूल बँगला अति न्यारौ ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , नख शिख सुन्दर प्यारौ ॥

बनी बेल गेंदा पुष्पन छवि , गुच्छ गुलाबन न्यारौ ।

कदली खम्ब कलश अति अद्भुत , खरत जमुन जल न्यारौ ॥

जुही मालती झालर झल्लर , अमल सिंघासन न्यारौ ।

किंकरि जन सब फूलन फूली , ठाकुर फूलत न्यारौ ॥

पद—देखौ सखि सकल सुमन सिंगार ।

सुमन चौक अरु सुमन बिछावन , सुमन खम्ब शुभ कलश सिंगार ॥

सुमन मण्डनी शिखर सुमन मय , पर्दा सुमन वितान सिंगार ।

सुमन सिंघासन चँवर छत्र छडि ,  दर्पण सुमनन व्यजन सिंगार ॥

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , धारत अंग सुमन सिंगार ।

सुमन भाव गायन वादन रस , युगल हिये रस बढत सिंगार ॥

श्रीवन सुमन सुमनमय श्रीवन , सद्गुरु अलिजन कृपा सिंगार ।

श्री राधा प्रिया जू स्वयं सिगारित , किंकरि जन मन करत सिंगार ॥

पद—चन्दन चर्चित छवि सुखसार ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , चर्चित हैं घनसार ॥

भाल तिलक चित्रावलि सुन्दर , मुख मण्डल विधु सार ।

हस्त पाद आभूषण अंकित , सहज सनेहज सार ॥

पत्रावली विविध विधि सुन्दर , शीतल श्रीवन सार ।

किंकरि जन हिय प्रेम हुलासिनि , अखय तीज सुखसार ॥

पद— वृन्दावन  नौका अति प्यारी ।

रवि तनुजा तट मणि कंचन सौं , सुन्दर अति  मनहारी ॥

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , राजत सखि बलिहारी ।

मन्द मन्द गति नौका विहरत , श्री यमुना सुखकारी ॥

लहर-लहर श्री यमुना कर जौं , नौका आपु सम्भारी ।

झुकि-झुकि यमुना में छवि देखत , निज छवि करी अनुहारी ।।

श्री यमुना उर वास समुझि दोउ , नैनन नेह सम्भारी ।

किंकरि कल-कल जल निनाद सौं , चहुँ दिसि आनन्द भारी ॥

पद–फूलन सौं सजि रहि नौका ।

फूलन झालर फूल छत्र छवि , फूलन सिंहासन छवि नौका ॥

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , फूलन मण्डल बैठे नौका ।

फूलन कौ सिंगार छवीलौ , फूलि-फूलि बतरावत नौका ॥

त्रिविध समीर युगल सुखदायक , अलिजन चाप चलावत नौका ।

जेठ सांझ सुन्दर यह लीला , किंकरि युगल सुखद यह नौका ॥

पद—नौका ते जल में दोउ देखत ।

निज प्रतिबिम्ब नीर यमुना में , बडौ अचम्भौ लेखत ॥

श्री यमुना उर मन्दिर तुम छवि ,जाकौ हमारा तुम देखत ।

बैन सुनत मोहन के श्यामा , बिहँसि मोद उर लेखत ।

प्रगटी तरन तनूजा पूजत , युगल चरन छवि देखत ।

किंकरि विरज दायिनी ,प्रभु हित  सब सुख लेखत ॥

पद –चुनि चुनि फूलन कियो सिंगार ।

फूलन अँगिया फूलन फरिया , फूलन लहँगा फूलन हार ।।

फूलन जामा फूलन बागे , फूलन बांसुरि फूलन वार ।

फूलन मुकुट चन्द्रिका फूलन , फूलन आभूषण सिंगार ॥

फूल सिंहासन फूले बैठे  , फूल फूल बतरावत चार ।

फूलन बगिया फूल सखी की , फूल फूल गुन गावत चारु ॥

फूलन छत्र छडी फूलन की , फूलन चँवर ढुरावत चारु ।

फूलन डबा मुकुर फूलन कौ , समीपवर्तिनी फूलन फार ॥

पान पीक फूले गल दोऊ  , मन्द मन्द मुसुकनि बलिहार ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , किंकरि जन मन प्रान अधार ॥

पद—रथ में विराजे निरखें वन शोभा ।

श्री सर्वेश्वर राधामाधव , सब शोभा की शोभा ॥

कबहूँ पुष्प बेलि मणि मण्डित , कबहूँ कंचन शोभा ।

मन्द मन्द गति निरखत श्रीवन , कबहूँ अति गति शोभा ॥

डरत लाडिली उर लपटानी , लखौ युगल रस शोभा ।

पूजन करत अलीजन निज-निज , कुंज द्वार करी शोभा ॥

वृन्दा जू की यहि अभिलाषा , लखौ धाम की शोभा ।

किंकरि आस भयी अब पूरी , सखियन की मन लोभा ॥

पद—रथ विहार दोउ करत सुहावैं ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , रंग देवी मन भावैं ॥

गहवर कुंज विहारिनि इच्छा , रँग जू रथ बनवावैं ।

अति सुन्दर जगमग मणि अद्भुत , मणि-मणि रूप लखावैं ॥

मणि में लखत रूप निज कबहूँ , कबहूँ लता लखावैं ।

मन हरषित गहवर कुंजन में , रास ललित सुख पावैं ॥

सुख विहार वन गहवर कुंजन , पुनि पुनि चित्त धरावैं ।

युगल माधुरी हिय में धरि करि , किंकरि जन बलि जावैं ॥

पद—उमडि घुमडि घन श्रीवन आये ।

मोहन महल कुंज नभ ऊपर , पावस प्रेम बसाये ॥

घुर-घुर घन-घन बोलत डोलत , युगल हिये में भाये ।

नहिं बरसत हरषत छवि देखत , मनहुँ निसान बजाये ॥

बिजुरी घन चमकत चमचम करि , चरन बन्दि हिय भाये ।

किंकरि घन वन सुन्दर लीला  , प्रेम प्रमोद कराये ॥

पद—आजु घन दामिनि दमक रही ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , छवि नभ साज रही ॥

मेघ श्याम दामिनि श्री राधा , दुरि-दुरि चमक रही ।

मानहुँ सघन कुंज विहरत विवि , प्रगटत दुरत रही ॥

चितवत युगल चपल नैनन सौं , मनहुँ लुभाय रही ॥

श्री सर्वेश्वर राधा माधव, किंकरि भाय रही ॥

पद—नन्हीं-नन्हीं बुँदियन भीजत दोऊ ।

कबहूँ नभ घन लखि मुसुकावत , कबहुँ परस्पर तन लखि दोऊ ॥

श्री सर्वेश्वर राधा माधव, बिन्दु बिन्दु मन हरषित दोऊ ।

श्रीवन सुमन मेघ जल बरसत , जनु झर सुमन मुसुकि जन दोऊ ॥

नेह बयारि नेह उमगावत , इहाँ उहाँ प्रिय बैठत दोऊ ।

किंकरि सावन सहज सुहावन , अलि हिय भाव बढावत दोऊ ॥

पद—कर कमलन मेंहदी रचवावैं ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , हरियाली तीज मनावैं ॥

रंग भरी मेंहदी रँग जू की ,  नव सुन्दर पत्र बनावैं ।

श्याम हथेलिन राधा लिख कै , मन्द- मन्द मुसुकावैं ॥

श्यामा करनि कृष्णप्रिय लिख कै , अपनौ भाग सिरावैं ।

नयन कोर लखि हुलसि परस्पर , पलक झपकि छवि पावैं ॥

रसनिधि कर सरोज रंग मेंहदी , अलिजन चकित सुहावैं ।

रंगदेवी जू कला रंगीली , किंकरि जन बलि जावैं ॥

पद—रंग बाग में हेम हिंडोरा ।

पवस तृन हरियाली अवनी , विविध सुमन चहुँ ओरा ॥

सुरभित कदम छाँह अति सुन्दर , मणिमय हेम हिंडोरा ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , राजि रहे चित चोरा ॥

दादुर वेदमंत्र ज्यौं बोलत , चातक करत निहोरा ।

गावत राग मल्हार सखी सँग , शुक पिक नाचत मोरा ॥

सहज झुलावत लाडलडावत , सुमन वृष्टि नभ ओरा ।

किंकरि तीज मनावत रँग जू , जय जय धुनि चहुँ ओरा ॥

पद—देखौ सखि पावस की छवि न्यारी ।

वन विहार कुंजन में बैठे , झर झर बरसत वारी ॥

श्यामा सकुचि श्याम उर लपटी , चुनरी भीजत सारी ।

मोहन ओट करी पीताम्बर , लीन्ही उर सुकुमारी ॥

नील वस्त्र श्यामा मुख सोहै , श्रीवन ससि उपमा री ।

या छवि पावस की मन भावै , किंकरि जन बलिहारी ॥

पद—नभ घन छायो जल बरसावै ।

वन विहार कुंजन में ठाडे , युगल हिये सरसावै ॥

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , तरु तरु वस्त्र बचावैं ।

सखियन दई ओढनी दोऊ , ओढि हिये सुख पावैं ॥

कबहूँ चलत कबहुँ तरुतर रुकि , नभ घन दृष्टि लखावैं ।

अलिजन संग विहार परम सुख , किंकरि जन मन भावैं ॥

पद—झर झर झर झर बरसत बदरा ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , हिय पावस के बदरा ॥

मोहन महल झरोखन देखत , भांति-भांति के बदरा ।

कारे-कारे नभ घन छाये ,  उडत नेह सौं बदरा ॥

महल वीथिका जल ही जल व्है , पावस सुखप्रद बदरा ।

तैरावत धरि सुमन पत्र पै , हँसत युगल लखि बदरा ॥

ओटि लखत अलिजन यह लीला , तडित  सुनावत बदरा ।

किंकरि उमडि घुमडि घन आवत , पद वन्दन कौं बदरा ॥

पद—आजु पवित्रा इन्हें धरावौ ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , मंगल कुशल मनावौ ॥

त्रिंशत पैंसठ गांठ जोरि कै , पचरँग रेशम लावौ ।

धूप दीप नैवेद्य सहित इन , माल पवित्र धरावौ ॥

नित नव होंइ अनन्द तिहारे , नित नव मोद धरावौ ।

किंकरि जन यही माँगत प्रभु सौं , कोटि कल्प सुख पावौ॥

पद—आजु पवित्रा अति मन भायी ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , सुन्दर वदन सुहायी ॥

कोमल गात सरस हिय माला , रंग बिरंग सुहायी ।

चिरजीवो यही सुन्दर जोरी , मांगत सदा सुहायी ॥

दिन-दिन उत्सव होंइ तिहारे , मंगल सदा सुहायी ।

किंकरि यहि अभिलाष पुरावौ , धारि पवित्र सुहायी ॥

पद—चलौ सलूनौ आज मनावैं ।

अपने अपने नेह सूत्र सौं , युगल बांधि उन भलौ मनावैं ।।

साजि सौजि  सब अपनी अपनी , पहुँची संध्या कुंज सुभावैं ।

रोरी तिलक अछत मोतिन के , बांधत रक्षा सखि मन भावैं ॥

घेवर फेनि मलाई मेवा , आरोगत दोउ रुचि मन भावैं ।

बीडा विविध दिये सब सखियन , प्रेम प्रमोद युगल मन भावैं ॥

सर्वानन्द रहें प्रभु तुम्हरे , किंकरि विरद तिहारो गावैं ।

रहे सुयश चहुँ ओर तिहारो , देवी देव  नमन सुख मानैं ॥

पद—रस अवतार भयो भू मण्डल , रस विस्तारन काज हो ।

रसमय नाम सरस श्रीवन में , रसमय वपु घनश्याम हो ॥

रसमय चौक पुरावौ मंगल , रस उत्साहक गान हो ।

रसमय कलश मंत्र धुनि रसमय , रस मण्डप अभिराम हो ॥

पद—रसिक वर प्रगट भये अहो आज ।

भादों कृष्ण अष्टमी निसि में , भवनिसि मेटन काज ॥

रस की प्रीति रीति स्थापन , भू मण्डल में आज ।

वासुदेव नँदनन्दन प्यारे , वृज मण्डल सिरताज ॥

आनन्द उत्सव कुंजन कुंजन , उछलत नाचत आज ।

दै दै ताल उच्च स्वर गावत , प्रगटत नेह न लाज ॥

रंगजू भक्ति बधायी बाँटत , अष्टयाम सुख साज ।

किंकरि अपनौ भाग सराहत , पावत दुर्लभ राज ॥

पद—सोने के पलना विराजत ललना , संग श्याम मन मोहै ।

बजत बधायी  रसनिधि आयी , बरनै  छवि अस कोहै ॥

चौक पुरावौ  मंगल गावौ , गोमय स्वस्तिक सोहै ।

कलश धरावौ मंगल गावौ , सब मंगल इन को है ॥

पद—प्रगटी अवतारन अवतारी ।

भादों सुदी अष्टमी शुभ दिन  श्री वृषभानु दुलारी ॥

वृज बरसाने कीरत कन्या, कृष्ण प्रिया सुकुमारी ।

यहाँ तौ निधि श्रीवृन्दावन की , परब्रम्ह पर न्यारी ॥

बजत बधायी कुंजन श्रीवन , गुन गावत मिलि नारी ।

दधि कांदो करि नाचत बहु विधि , भीजत सब की सारी ॥

छिरकत केसर सुमन विविध विधि ,होत हरष विस्तारी ।

आल्हादिनि स्वामिनि मोहन की ,किंकरि जन बलिहारी ॥

पद—सांझ समय दोउ सांझी खेलत ।

श्रीवन बाग तडाग तीर पै , हँसि दोऊ उर मेलत ॥

सुमन सुमन मिलि सुमन चुनत रहि , सुमनन सांझी खेलत ।

कोटि कला संजीवन दोऊ , रचना करि करि देखत ॥

श्यामा-श्याम श्याम-श्यामा की , करी सुमन छवि लेखत ।

मनहारिनि रचना दोउन की , पूँछत सखिजन हेलत ॥

रचना कहौ कौन की सुन्दर , सांच कहौ दोउ हेलत ।

श्यामा कहें श्याम रचना कों , श्याम गौर मुख लेखत ॥

एहि विधि सुख बाढ्यो श्रीवन में , सब सब के मन मेलत ।

किंकरि सांझी सदा सुहावनि , सदा रहौ रस खेलत ॥

पद—श्री रंग जू के महल बाग  में , सांझी लीला सांझ हो ।

मणि सिंहासन बैठे दोऊ , सखिजन उमँग अपार हो ॥

सांझी सुमन बनावन हित मन , सुमन विविध भर थार हो ।

केसर इत्र अछत मोतिन के , रोली मोली हार हो ।।

व्यंजन विविध सुवासित जल लै , प्रगटी सहचरि चार हो ।

श्रीराधा गोलोक बिहारी , सांझी रचत विचार हो ॥

छत्र सिंहासन देवी बैठी , सुन्दर रूप अपार हो ।

श्रीरंगदेवी कहें युगल सौं , पूजौ इन सुखसार हो ॥

पद –सांझी वृन्दावन की देवी  ।

श्रीवन सरस सुहावनि कारनि , वृन्दा जू देवी ॥

श्री राधा रस प्रकट करावनि , प्रकट भयी यह देवी ।

अंतरंगिनी प्रकट पुजावत , मोहनि मंगल देवी ॥

पद—पूजौ सांझी लेहु असीस ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , सब मंगल आधीश ।।

तौहू रस विस्तारन कारन , पूजि नवावहु सीस ।

अंतरंगिनी प्रकट भयी हैं , नित नव केलि अधीश ॥

पद—भाव सौं सांझी पूजत आज ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , भाव भरे रस राज ॥

अर्ध्य पाद्य स्नान वस्त्र धरि , रोली अक्षत साज ।

मौली पुष्पहार धारण करि , व्यंजन नव-नव आज ॥

भोग लगावहु देवी रसदा , श्री वृन्दावन राज ।

होहु प्रसन्न रहस्या रसनिधि , किंकरि पूरन काज ॥

पद—सांझी सुन्दरि आरति वारति ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , तिन नीराञ्जन वारति ॥

कनक थार घृत दीपक सुन्दर , प्रेम ज्योति सों वारति ।

मोहन करत आरती कर सों , नैनन सौं छवि वारति ॥

श्यामा रूप लखौ देवी कौ , जय जय हरषि उचारति ।

जल सौं वार नयन सौं लावत , शिथिल गात सब वारति ॥

पद—नयन मूदि अंजुलि करि मोहन , मन ही मन कछु याचत हैं ।

नयन नीर छलकात कपोलन , मृदुल गात रस ज्ञापत हैं ।।

श्यामा चरन सरोज भ्रमर हौं , भाव भरे उर कांपत हैं ।

चरन सरन रस विविध प्रदायिनि , बार-बार यहि मांगत हैं ॥

पद—नित नव मंगल होंइ तिहारे ।

नित नव प्रकट होइ रस श्रीवन , अरु मन सहज तिहारे ॥

नित नव भाव कला कौतूहल , विलसौ सब सुखकारे ।

सांझी रूप स्वामिनी श्यामा , देत असीस  सकारे ॥

करत प्रनाम चरन सिर नावत , प्रेम पुलकि सुधि हारे ।

किंकरि नयन नीर सिर नावत , जय-जय शब्द उचारे ॥

पद–  विजया दशमी विजय रही ।

कोटि भुवन विजयी रन विजयी , कीरति छाय रही ॥

मन विजयी रस विजयी दोऊ , जय छवि छाय रही ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , दुंदुभि बाजि रही ॥

महा छवी नव धीर वीर अति , विवि रंग छाय रही ।

को कहि सकहि विजय दोउन की , किंकरि भाय रही ॥

पद—विजया दशमी बडो हुलास ।

रनजीते मनजीते दोऊ , चहुँ दिसि जयति हुलास ॥

जय जीते सहजहि रस जीते , जन मन भयो हुलास ।

स्तुति करत सखीजन बहु विधि , पूजन परम प्रकास ॥

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , सुनि गुनि सहज हुलास ।

किंकरि कृपा कोर रस चाहति , मन में विजय प्रकास ॥

पद—विजय रहस्य सुनौ सब सखियां ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , कहत वचन हेलत सब सखियां ॥

खल कौ दण्ड भक्त की रक्षा , अण्ड अनेक करत हमारा सखियां ।

चक्र सुदर्शन पार्षद हमरे , बिनु आदेश करत सब सखियां ॥

श्रीवन पराभक्ति उपदेशत ,  अष्टयाम सेवा प्रद सखियां ।

श्री रंगदेवी चक्र सुदर्शन , एकहि हैं पूजौ इन सखियां ॥

इन पूजन सौं रन मन विजयी , सहज होत रसमय सब सखियां ।

बनै हमारी प्रिय किंकरि सो , श्रीवन वास सुखद सब सखियां ॥

दोहा—श्री रंग देवी महल में , रंग बाग में मंच ।

शरद उजियारी रात में , नृत्य गीत सुख संच ॥

पद—श्यामा श्याम शरद निसि नाचत ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , शुभ्र वसन रँग राँचत ॥

अलिजन वसन वितान शुभ्र सब , शरद चन्द्र मन राँचत ।

तुंगविद्या  वादन बहु बहु विधि , राग तरंग सुराँचत ॥

इन्दुलेखा गति नृत्य करावत , सखियन के मन भावत ।

ता थेइ ता थेइ तत् तत् थे ई , धी धिलंग गुन गावत ॥

कर पद गति दोऊ अनुसारत , रंग जू रंग अनुसारत ।

जयति जयति सखियां उच्चारत , किंकरि भाव सुहावत ॥

पद—यमुना पुलिन शरद उजियारी ।

मण्डल शुभ्र चांदनी समाचार ज्यौं , शुभ्र वसन सिंगार विहारी ॥

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , सखिजन शुभ्र वसन सुखकारी ।

वेणु पखावज मृदंग वीणा , तार वाद्य मंजीर सुखारी ॥

पुष्प पंखुरी चँवर मोरछल , छडी छत्र छवि सब मनहारी ।

अष्टसखिन प्रभु पूजन कीन्हों , छेडी तान मान गति कारी ॥

गायन वादन तान तरंगित , युगल नृत्य सखियन सँग न्यारी ।

अद्भुत शरद निरखि इन अखियन , सजल नयन किंकरि बलिहारी ॥

पद—श्री वृन्दावन दीपावली ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , भक्ति प्रेम गुन आवली ॥

जगमग होत प्रकास चहूँदिसि , प्रभु सेवा दीपावली ।

कर्म के दीप नेह के घृत सौं , प्रेम भाव दीपावली ॥

सर्वस प्रभु सेवा सुख वारैं , यहि पूजन दीपवली ।

जीवन जन्म धन्य होवै तब , किंकरि बनि दीपावली ॥

पद—करहु प्रकाशित दीपमालिका ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , मंगल दीपक मालिका ॥

द्वार झरोखन कुंजन कुंजन , रंग बिरंगी मालिका ।

छाजे शिखर कलश कुंजन के , जगमग दीपक मालिका॥

सखियन नेह भाव के दीपक , ज्योति प्रकाशित मालिका ।

निज हिय प्रेम प्रकाशिनि किंकरि , भक्ति ज्ञान की मालिका ॥

पद—चढि विमान दीपावलि देखत ।

मोहन महल शिखर धुज सबही , दीप दीप युत दीखत ॥

भांति भांति दीपावलि अद्भुत , जगमग जगमग दीखत ।

तरु बेली सब दीप दीपमय , श्रीवन दीपत दीखत ॥

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , रीझे दीपक देखत ।

किंकरि भाव दीपनी शोभा , युगल चरन उर देखत ॥

पद—मणि कंचन की हटरी ।

अति विशाल नव रत्न दिपति हैं , जगमग जगमग हटरी ॥

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , मुदित विराजत हटरी ।

जगमगाति दीपावलि सुन्दर , कला कुतूहल हटरी ॥

रोली तिलक मिठाई मेवा , सखि पूजत विवि हटरी ।

सब सुख बढें युगल के निसिदिन , किंकरि याचत हठ री ॥

पद—गो पूजन करत श्यामा श्याम ।

धूसर श्यामल कपिला कबरा , सबही सब अभिराम ॥

मोहन महल राय आंगन में ,  जुरी सकल सुखदाम ।

रोली अछत ओढनी माला , पूआ भोग ललाम ॥

कर फेरत हेलत गौअन कौं , सच गोपालहिं नाम ।

किंकरि श्रीवा गोधन शोभा , पूरन सब मन काम ॥

पद—अंग सौं अंग तपावैं ।

मोहन महल सुभग शैया पै , शिशिर कौ शीत भगावैं ॥

मदन ताप सौं तापत दोऊ ,अंग सौं अंग भिरावैं ।

शीत किंकरी कम्पित दोऊ , लीला ललित रचावैं ॥

पद—सुमन भवन बैठे मन भावैं ।

सुमन अवनि स्तम्भ सुमनमय ,  सुमन भीति बैठे मन भावैं ॥

सुमन वितान सुमन सिंहासन , सुमन छत्र बैठे मन भावैं ।

सुमन्न शिखर सिंगार सुमनमय , सुमन भाव हरषत मन भावैं ॥

सुमन विहार सुमन दोउ विहरत , सुमन सखी सेवा मन भावैं ।

किंकरि सुमन सुमन श्रीवन सब , झरत सुमन तरुवर मन भावैं ॥

पद –श्री वृन्दावन धूम मची है , कातिक पून्यौ आयी है ।

श्री रंग देवी प्रकट भयी भू , वैदिक भक्ति बढायी है ॥

श्री निम्बार्काचार्य रूप धरि , पराभक्ति सुख दायी है ।

अष्ट रूप धरि प्रभु सेवा में , युगल प्रेम मन भायी है ॥

रंग रंगीली रंग देवी जू , युगल चरन रस दायी है ।

पूजौ आज इन्हें सब मिलि कै , किंकरि वारि बधायी है ॥

पद—रंग देवी जू तुम अति नीकी ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , निकट बुलाय कही निज जीकी ॥

श्यामा जू कर गहि निज कर में , दियो पान बीडा मुख नीकी ।

मोहन तिलक कियो रोली कौ , दयी प्रसादि ओढनी जीकी ॥

सहचरि सब सिंगार कियो अति , कातिक पून्यो भू अति नीकी ।

पराभक्ति अवनी स्थापित , बनी सेतु जीवन नित जीकी ॥

धन्य धन्य निम्बार्क स्वरूपा , भक्ति विराग ज्ञान गुन नीकी ।

प्रकट आचरन करि उपदेस्यो , किंकरि जन बलिहारी जीकी ॥

पद—श्री सर्वेश्वर राधा माधव , चरनन सिर धरि मांगत हौं ।

नैनन सौं लखि रूप माधुरी , स्वाति सलिल सम चातक हौं ॥

नाम जाप  निसिदिन तत्पर व्है , कथा श्रवण रस पागत हौं ।

किंकरि भाव रहूँ सेवा में , अष्टयाम सुख याचक हौं ॥

श्री निम्बार्कतीर्थ महिमा

श्री निम्बार्क तीर्थ सम , नहिं तीरथ है कोय ।

किंकरि मानस रोग सब , क्षण में देवै खोय ।। 52 ॥

श्री निम्बार्कतीर्थ रज , है संजीवन चूर्ण ।

किंकरि मस्तक धरत है , युगल कृपा रस पूर्ण ।। 53 ॥

श्री निम्बार्क तीर्थ कौं , नमन करै जो कोय ।

किंकरि मन वश में रहै , नाम जपै वो रोय ।। 54 ॥

श्री निम्बार्क तीर्थ की , करै प्रदक्षिण सात ।

किंकरि अघ कोटिन हरै , सेवा भक्ति सुभात ।। 55 ॥

श्री निम्बार्कतीर्थ की जय जय ।

कोटि जन्म अघ नासत छिन में , वृज में वास करावत जय जय ।।

युगल नाम जप सेवा प्रभु की ., अष्टयाम सुख साधत जय जय ।

सखीभाव दुर्लभ सम्पोषत , किंकरि भाव जगावत जय जय ॥

गुरु आश्रम में निवास विधि

गुरु के आश्रम जाय कै , सुख सुविधा जो चाह ।

गुरु चेला दोऊ मरे , किंकरि भूली राह ।। 56 ॥

गुरु आश्रम सेवा करै , तजि कै सुख सम्मान ।

पाप दोष विनसैं सकल , ह्वै किंकरि सुख मान ।। 57 ॥

जाकौ मन प्रभु जू हरौ , गुरू दिखावत राह ।

सो अटकै भटकै नहीं , किंकरि एकहि चाह ।। 3 ।।

सेवा निर्मल करत है , भजन बनावै पात्र ।

रसिकन सँग भक्ती मिलै , किंकरि होत अगात्र ।। 4 ।।

योग भोग सम्पति मेरी युगल नाम जप प्रीति ।

बिनु रस सब रस सिद्ध हौं , किंकरि रस की रीति ।। 5 ।।

वृन्दावन वास

श्रीवन जाइ कै सब बसैं , श्रीवन रहइ न कोइ ।

किंकरि श्रीवन ही रहइ , जग वृत्तिन सब खोइ ।।  8 ।।

श्रीवन बसि जग वृत्ति रत ,मल वाणी पद घात ।

किंकरि पशुता छांडि दै , नहिं यह रस की बात ।। 9 ।।

श्रीवन हिय वन में बसै , जिव्हा पै प्रभु नाम ।

विरजा उपरति दसहुँ दिसि , किंकरि लीला धाम ।। 10।।

प्रति दिन सोलह याम कौ , भजन करै जो कोय ।

किंकरि वृन्दावन बसै , बाकी बाहिर होय ।। 11 ।।

ब्रह्मचर्य धारै नहीं , श्रीवन में करि भोग ।

श्रीवन रक्षणि किंकरी , मन में मानै क्षोभ ।। 12 ।।

ठौर ठौर किंकरि बसैं , हमकौं दीखै नाहिं ।

उन विपरीतहिं हम चलैं ,कहु किमि होत सुहाहिं ।। 13 ।।

संसारिक शव वत रहै , दृढव्रत अति मन वीर ।

श्रीवन किंकरि रहनि यह , अष्टयाम अति धीर ।। 14 ।।

श्रीवन रहनी सुनो हमारी

पहिले मातु पिता की सेवा । अनि कर्तव्य पूर्ण करि लेवा ।

श्री गुरु चरन सरन रज पाय । नाम जाप मन खूब लगाय ।।

मन ते सकल वासना भागै । पूर्ण ब्रह्मचर्य मन अति लागै ।।

सुख अरु मान तजै विष सम जो । दास अनुदास सहज रहि सक जो ।।

श्रीवन मन मन श्रीवन रहनौ । श्वास श्वास श्रीवन रस पीनौ ।।

श्रीवन विरह होइ अति भारी । अष्टयाम सेवा करि सारी ।।

सोलह याम प्रभू मन लागै । सो श्रीवन बसि पाव सुहागै ।।

ऐसी रहनि रहहि जो कोई । श्रीवन बनि श्री बिरलौ होई ।।

श्रीवन वृजवासी सकल , सन्त भक्त गोपाल ।

जीवन प्राण अधार मम , किंकरि के प्रतिपाल ।।

इन सबसौं माँगू यही , करौ चरन रज दास ।

किंकरि दुर्दुबल सदा , कृपा तिहारी आस ।। 15 ।।

पद—अखण्ड सुख दायिनी सेवामृत वाणी ।

जनम मरण कण्टक कौं काटै , देवै सुख की घाणी ॥

कोटि जन्म के अघ दुःख नासै ,  वृत्ति सुधारत वाणी ।

श्री सर्वेश्वर राधा माधव , अपनावत निज मानी ॥

टहल चाकरी प्रभु की पावत , जो यह हिय धरि जानी ।

राधा कांत वत्स किंकरि व्है , गुन गावत यहि बानी ॥

॥ इति श्री श्रीजीमहाराज निकुञ्ज सेवामृत सम्पूर्णम् ॥

श्री श्रीजी महाराज महिमामृत भाग 2

प्रथम संस्मरण … यथा देहे तथा देवे

एक दिन आचार्य पीठ के निकट किसी गाँव में आचार्यश्री चरणों की पधरामनी हुई तथा वहाँ से आचार्यश्री चरण वापिस आये तब आपश्री अपने साथ गयी परिकर को नीचे गाडी में रहने का आदेश देकर ऊपर महल में चले गये । उस समय भयंकर ग्रीष्म काल था और कहीं अन्य जाने का कार्यक्रम भी नहीं था फिर भी क्या रहस्य था कोई समझ नहीं पा रहा था ?  आचार्य श्रीचरण महल से नीचे आये तो अपने श्रीकर कमलों में एक लम्बा चौडा वस्त्र लिये हुए थे । सब कुछ रहस्यमय था । गाडी को उसी मार्ग पर पुनः चलाने का आदेश हुआ । उस भयंकर गर्मी में  अनुमानित 25 किमी चलने के बाद  एक स्थान पर गाडी रोकने का आदेश हुआ । आचार्य श्रीचरण  अकेले ही गाडी से उतरे अपने हाथ में लिये हुए वस्त्र को लेकर एक विशाल मैदान में अकेले ही जाने लगे तब परिकर जन भी पीछे-पीछे गये । इतने में सभी लोग देखते हैं कि आचार्यश्री उस वस्त्र को मैदान में स्थित शंकर भगवान की मठिया पर तीन ओर से लपेट रहे हैं बाद में परिकर ने भी सहयोग किया तब आप मुस्कुरा कर बोले कि भगवान शंकर और उनके परिवारी जन इस भयंकर ग्रीष्म में धूप में तप रहे थे अतः हमको आचार्यपीठ से वस्त्र लाकर यह व्यवस्था करनी पडी । धन्य हैं आचार्यश्री गुरुदेव इतनी भयंकर गर्मी में भी लेशमात्र भी बिलम्ब नहीं किया और तुरन्त ही भगवान शंकर की सेवा में स्वयं ही लग गये । शास्त्रों में इसी प्रकार की सेवा भावना को  “ यथा देहे यथा देवे ”  कहा गया है ।

        व्दितीय संस्मरण वृज में मुस्लिम की अनुपम भक्ति

अपने एक वयोवृद्ध पुजारी जी की प्रबल इच्छा पर आचार्यश्री ने बृज चौसासी कोस की परिक्रमा की । परिक्रमा की शोभा दिव्यातिदिव्य थी  । सम्पूर्ण वृज मण्डल आचार्य श्रीचरणों का पूजन करके अपनी भाग्य की सराहना कर रहा था । जहाँ से भी होकर यात्रा निकलती थी वहाँ का जन समुदाय पुष्पवर्षा करके आचार्य श्रीचरणों का पूजन आरती करता था समस्त समुदाय का प्रसाद आदि से स्वागत करता था । वृज मण्डल के ही किसे गाँव से यात्रा निकल रही थी तब उस गाँव के आबाल वृद्ध नरनारी युवा सभी दर्शनार्थ आये और यथायोग्य पूजन स्वागत किया और यात्रा आगे निकल गयी । लगभग चार किमी आगे निकल जाने पर एक आवाज जोर-जोर से सुनायी दी “ महाराज ! महाराज !! जय हो ! जय हो!! ”  काफी जोर-जोर से कई-कई आवाज आने पर लोगों का ध्यान पीछे गया तो कुछ लोगों ने मामला समझा और देखा कि एक अत्यधिक हृष्ट-पुष्ट कृष्ण वर्ण व्यक्ति अपने हाथों में एक कलश लेकर जोर-जोर से आवाज लगाता हुआ भाग रहा है । महाराजश्री सहित परिक्रमार्थी रुक गये कुछ समय में वह व्यक्ति आया और रोते हुए दूध से भरा कलश परिकर को दिया । आश्चर्य कि परिकर उस गर्म दूध से अत्यधिक गर्म कलश को अपने हाथों में न थाम सकी जबकि वह व्यक्ति लगभग चार किमी से उबलते दूध को ले कर भागा आ रहा था । वह व्यक्ति मार्ग में पीछे रहे गये गाँव का मुसलमान था जो किसी कार्यवश अन्यत्र चले जाने से वह महाराजश्री के दर्शनों से वंचित रह गया था । अब तो उसकी इच्छा पूर्ण हुई और उसने श्रीचरणों का यथायोग्य नमन वन्दन किया । धन्य है यह भारत भूमि जहाँ सभी धर्मों के लोग जगद् गुरु निम्बार्काचार्य जी के आगे नतमस्तक होते हैं ।

       तृतीय संस्मरण पंजाब में सिख की अनुपम भक्ति

सन् 1967 में भारत वर्ष में सन्तों के द्वारा गोरक्षा आन्दोलन अपने चरम पर था । जगद् गुरु  शंकराचार्य पुरी पीठाधीश्वर  दीर्घकाल से अनशन पर थे । जगद् गुरु निम्बार्काचार्य जी भी पुरी पधारे थे । वापिसी में मार्गमें अचानक गाडी खराब हो गयी । पता करने पर एक गाडी मेकेनिक को लाया गया । उसने गाडी को परिश्रम करके लगभग दो घंटे में ठीक कर दिया । परिकर के द्वारा बार-बार कहने पर भी पारिश्रमिक लेने को तैयार न था । उस सिख मेकेनिक ने पारिश्रमिक लेना स्वीकर नहीं किया परन्तु आचार्यश्री चरणों की अपनी दुकान पर पधरामनी की इच्छा प्रकट की । करुणावरुणालय आचार्यश्री चरणों ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली । पूज्य पाद उसकी दुकान पर पधारे तो ढंग से बैठने को भी स्थान नहीं था परन्तु दीनानाथ आचार्यश्री वहाँ विराजे । उसने प्रसाद सेवन की प्रार्थना की तो पास की प्रसिद्ध दुकान से कुल्हड में दूध ले आया और पूज्य पाद आचार्यश्री से गिडगिडाने लगा । जब बात बनती न दिखी तो प्रार्थना करने लगा कि अपने करकमल की उंगली ही उस दूध में डिबो दीजिये और जब संकोच दिखने पर उसने उस दूध के कुल्हड में आचार्यश्री चरणों का अंगूठा स्वयं ही डुबो दिया । इस दृश्य से सभी अभिभूत हो गये और शिष्य न होते हुए भी उस सिख की धार्मिक भावना को सभी लोग धन्य-धन्य कह उठे ।

            चतुर्थ संस्मरण– सेवा में स्वयं तत्परता

एक बार मैं दो दिन के लिये आचार्य पीठ में ही था आपश्री के पास महल में गया तो आपश्री ने मुझे स्टेथोस्कोप अपनी आलमारी से निकाल कर दिया और स्वयं अपने हाथों में लगभग दो किलो मेवा की पोटली ले ली और मुझे आगे आगे चलने का आदेश हुआ । मैं संकोच में पीछे देख देख कर आगे गंतव्य कक्ष की ओर बढ रहा था आचार्य पीठ परिसर में ही । आप श्री ने एक कक्ष के सामने रुक कर मुझे उस कक्ष के व्दार खोलने का संकेत किया ।  उस कक्ष के व्दार खोलने पर समझ आया कि वहाँ एक 90 वर्षीय वृद्ध संत रोग ग्रस्त थे । आपश्री ने मुझसे स्टेथोस्कोप से श्वास का परीक्षण कराया तथा उनको वह मेवा की पोटली सौंपी । सब के दुःख में स्वयं ही सेवा सहयोगी की भूमिका के अनेकों प्रमाण सहज सुलभ हैं ।

        पंचम संस्मरण– रोगज अशक्तावस्था में भी सेवा तत्परता

वृक्क ( किडनी )  के विकार ने जीवन को ही विकलांग कर दिया । सामान्यजन की वृद्धावस्था में भी तप और सेवा का तेज युवाओं को भी लजा रहा था वहीं वृक्क विकार ने आचार्यश्री को सर्व विध विवश कर दिया । स्वयं सीधे खडे भी नहीं हो सकते थे । इसी काल खण्ड में मैं भी आचार्यपीठ गया । शीत ऋतु उतार पर थी ।

मैं प्रातः काल स्नान किये बिना ही मालाझोली लेकर श्रीराधामाधव जी की परिक्रमा करते हुए नाम जाप करने लगा ।  मैं बहुत तन्मय होकर जाप कर रहा था । अचानक एकदम सामने आचार्यश्री मेरे सामने आगये । मैं चौंक कर रह गया कि आचार्यश्री  बीमारी के कारण  सीधे खडे नहीं हो सकते थे फिर भी प्लास्टिक की एक टोकरी में लगभग पांच-छह किलो सब्जी-फल को दोनों हाथों से अपने पेट से लगाये झुके हुए श्रीराधामाधव जी के भोग के लिये मन्दिर में ला रहे थे । आश्चर्य की बात कि आचार्य पीठ में सेवकों की कमी नहीं है फिर भी दैहिक सामर्थ्य न होते हुए भी सेवा की तत्परता से मेरा हृदय भाव विभोर हो गया कि क्या कभी मुझे भी ऐसी सेवा तत्परता प्राप्त होगी ।

षष्ठ संस्मरण — जगद् गुरु होते हुए भी सिर झुका देने वाली विनम्रता

मैं अपने भाई और पिताजी के साथ आचार्य पीठ गये । रात्रि में आचार्य श्रीचरणों से वार्ता करने महल में गये । महल में प्रवेश करते ही हम तीनों ने देखा कि आचार्य श्रीचरण रात्रि ब्यालु भोग आरोग कर आंगन में टहल रहे थे । हम तीनों ने वहीं दूर से प्रणाम किया और द्वार पर ही खडे रहे । लगभग 15 मिनट तक हम सभी मौन शान्त खडे रहे । आचार्य श्रीचरण अन्दर महल में गये और अपने श्रीकर कमल में एक बडी चादर उठाये बाहर आ रहे थे । मेरे पिताजी ने जैसे ही देखा तो वे लपक कर आगे बढे और श्रीकर कमलों से उस चादर को लेने लगे । श्रीगुरुदेव मना करने लगे तब पिताजी ने जबरदस्ती आग्रह करके वह चादर ले ली । हम दोनों भाई कुछ समझ नहीं पा रहे थे । जब पिताजी ने उस चादर को आचार्यश्री के आसन तख्त के नीचे बिछाया तब सारी बात समझ में आयी कि वह चादर तो हम लोगों के बैठने के लिये थी । हम लोगों का सिर शर्म से झुक गया कि “  कोटि सूर्य सम प्रभ ” आचार्यश्री जिनके आगे राजा महाराजा तो क्या देवी देवता भी झुके रहते हैं  उन आचार्यश्री को  हम तुच्छातितुच्छ जीवों के बैठने के लिये बिछावन लेकर आने में कोई संकोच नहीं , ऐसी विनम्रता से हमारा सिर गर्व और संकोच से झुक जाता है । अतः हमें और भी अधिक विनम्र और निःसंकोच सेवा तत्पर होना चाहिये ।

    सप्तम संस्मरण–श्रीगुरुदेव के स्मरण का तुरन्त आश्चर्यजनक चमत्कार

मैं एक तीर्थ में था । उस तीर्थ के एक मात्र प्रसिद्ध मन्दिर से लगभग एक किमी दूर धर्मशाला में हम सभी ठहरे हुए थे । अत्यधिक भीड और दो किमी लम्बी लाइन से बचने को दोपहर में दर्शनार्थ मैं निकला सडक पर नंगे पैर । सडक पर आते ही ज्येष्ठ की आतप से गर्म सडक पर मेरे पैर जलने लगे तब अपनी गलती का अनुमान हुआ और वापिस धर्मशाला मैं जाकर चप्पल पहन कर आने की सोचने लगा । इतने में ही मुझे प.पू.पा. आचार्यश्री चरणों का अनायास और अकारण ही स्मरण हो आया कि हमारे श्रीगुरुदेव आचार्य श्रीचरण तो अत्यधिक कोमलांग होकर भी श्रीधाम में इसी प्रकार ज्येष्ठ-आषाढ की तपती धरती पर बगैर पादुका बडे ही सहज रूप से चलते थे और तू ( मैं ) सामान्य सेवक होकर भी बगैर पादुका नहीं चल सकता !! आश्चर्य कि इतना स्मरण होते ही मैं भी उसी तपती भूमि पर नंगे पैर सहज भाव से चलने लगा । मेरा मन स्वयं आश्चर्य चकित हो गया कि अन्य सभी तो पादुका पहनने पर विवश हो गये परन्तु मेरी आत्मा के द्वारा अनायास ही श्रीगुरुदेव के एक गुण का मात्र स्मरण करते ही परिस्थिति के पूर्ववत् रहते हुए भी स्थिति बदल गयी । यह चमत्कारिक बात मैंने अपने साथ के सभी लोगों को तुरन्त बतायी । धन्य हैं मेरे श्रीगुरुदेव ।

          अष्टम संस्मरण – अद्भुत त्याग पूर्ण रहनी

श्रीधाम वृन्दावन में तो मुझे सैंकडो बार आचार्यश्री के निज जीवन की रहनी-सहनी को देखने का अवसर प्राप्त हुआ और स्वयं देखा कि एक ही कक्ष में भूमि पर ही शयन वो भी कभी-कभी बगैर विस्तर के । एक बार मुझे आचार्यपीठ में आचार्यश्री के शयन कक्ष में जाने का अवसर मिला । मैं देख कर दंग रह गया कि इतनी सादगी इतने वैभव के रहते हुए भी । इसी क्रम में एक विचित्र घटना का उल्लेख किये बिना सारे संस्मरण अधूरे ही होंगे । हुआ यूँ कि एक बार मैं आचार्य पीठ गया तब मेरे पिताश्री भी वहीं प्रवास कर रहे थे । संयोगवश उस दिन सुबह 10 बजे आचार्यश्री महल का एक पार्षद विद्यार्थी अपने सिर पर कपडे की एक बडी पोटली लेकर वैद्यजी के निवास पर आया । उसे देखते ही वैद्यजी मुझसे बात करते हुए एकदम तेजी से उठे और उस विद्यार्थी से बोले अभी रुक जा और रसोई में जाकर हाथ धोकर शुद्ध जल लोटे में लाये और जहाँ हम सभी बैठे थे वहां खाली जगह पर हल्का जल छिडक कर उस विद्यार्थी से बोले कि इसे यहाँ रख दे । विद्यार्थी उस बडी पोटली को वहाँ रख कर चला गया तब मैंने जिज्ञासा के साथ पूँछा कि इसमें क्या है जो इतनी पवित्रता से इसे रखवाया गया है तब वैद्यजी ने मुझे बताया कि इसमें जै-जै की रजाई है । मैंने पुनः पूँछा कि यह रजाई यहाँ क्यों आयी है तब वैद्यजी मुस्कराकर चुप हो गये । कुछ समय बाद मैंने देखा कि खद्दर की साधारण से रजाई कई जगह से फटी हुई थी । उसी रजाई को पवित्रता से सिलाई हेतु वैद्यजी के पास भेजा गया था । मेरा मन भी बरबस कह ही उठा —  “ जग वैभव चरनन पडौ , किंकरि अचरज आज । फटी रजाई ओढते , श्रीश्रीजी महाराज ॥ ”  (श्री श्रीजी महाराज महिमामृत)

           नवम संस्मरण – श्रीगुरुदेव का गुडाकेशत्व

अपनी किशोरावस्था में मुझे कुछ दिन श्रीवृन्दावन धाम में आचार्य श्रीचरणों की सन्निधि में रहने का अवसर मिला । श्री श्रीजी की कुञ्ज में जहाँ हम सभी आचार्य श्रीचरणों के दर्शन करते हैं वहीं आचार्यश्री की परिकर सोती थी और मैं भी वहीं सोता था तथा आचार्यश्री पीछे बरामदे में पर्दा हटा कर भूमि पर ही हमारी तरह ही सामान्य विस्तर पर शयन करते थे । मुझे आज भी वृज वृन्दावन में नींद कम ही आती है और वैसे ही पहले भी । मैं प्रातः 3.30\4 बजे उठ कर आचार्य श्रीचरणों में अन्धेरे में ही दूर से दबे पांव ( किसी प्रकार के शब्द रहित ) जाकर उन्हें प्रणाम कर लेता था और फिर वापिस अपने विस्तर रूपी चादर पर लेट जाता था । मैं यह समझता था कि मेरी इस प्रक्रिया का किसी को भी पता नहीं लगता है । एक दिन आचार्यश्री ने अपने परिकर के सामने सभी से पूँछा कि बताओ यहाँ महल में कौन प्रातः सबसे पहले उठता है । सब बताने लगे और मैं सहज ही चुप था तब आपश्री ने मेरी ओर संकेत करके कहा कि ये सबसे पहले उठता है और दबे पाँव आकर अँधेरे में ही हमें दूर से प्रणाम करके वापिस लेट जाता है । ये समझता है कि हम सो रहे हैं परन्तु हमको सब पता होता है । मुझे आश्चर्य हुआ पू.पा. श्रीगुरुदेव रात्रि 12\1 बजे से पहिले शयन नहीं करते हैं और दिन में तो लेश मात्र भी विश्राम  नहीं फिर भी  मात्र 2-3 घण्टे की निद्रा और आनन्द भी हुआ कि मेरे श्रीगुरुदेव को मेरा सब कुछ पता है तो निश्चित ही मेरा कल्याण होगा और मेरी समस्त पाप-ताप वृत्तियों का नाश होकर मुझे भी गुडाकेशत्व और किंकरी स्वरूप प्राप्त होगा ।

नवम संस्मरण—दूरस्थ अपरिचिता अश्रद्धालु को स्वप्न में दर्शन देकर नतमस्तक किया —

पिताजी के घर मथुरा में आचार्यश्री चरणों की पधरामनी होनी थी उनके एक मित्र उनसे गिडगिडाते हुए बोले कि मेरे घर से भी एक चादर महाराजश्री के नीचे कहीं भी बिछ जाय तो मेरा जीवन सफल हो जायगा । उनके गिडगिडाने पर पिताजी ने अनुज मनुजी को उनके घर चादर लेने भेज दिया । उनकी धर्म पत्नि रिश्ते में मातृवत होने से यानी चाचीजी ने अपनी नव वधु को आदेश दिया कि तेरे घर से आयी चादरों में से एक चादर मनु को देदे । उस नव वधु ने कारण पूँछा तो उस नव वधु ने कहा कि वो ऐसे संतों को नहीं मानती है । बात मनु जी को भी बुरी लगी परन्तु पिताजी के मित्र चाचाजी की भावना को देखते हुए खून के घूट पीकर चादर ले आये । दूसरे दिन प.पू.पा.आचार्यश्री का आगमन हुआ । काफी अधिक भीड के मध्य वह महिला भी आयी और बुरी तरह रोने लगी । हम लोग घबडा गये । पूँछने पर बताया कि मुझे रात को स्वप्न में इन सन्त ( आचार्यश्री)  के  दर्शन हुए थे । आश्चर्य की बात उस क्षण से पूर्व उसने नहीं कभी साक्षात् और नहीं कभी चित्र के दर्शन किये थे । और फिर वह महिला दीक्षा लेकर शिष्या बन गयी।

दशम संस्मरण – चाकी सेवा

मेरे जनक वैद्यजी उन दिनों आचार्यपीठ में ही निवास कर रहे थे । एक दिन ज्येष्ठ की भरी दोपहर में वैद्यजी आचार्यश्री महल में चले गये । जहाँ पर आचार्यश्री सामान्यतः विराजे हुए मिलते थे वहाँ नहीं मिले तो इधर-उधर झाँक कर देखा तो आश्चर्य हुआ कि महल पूरा खुला हुआ है ! महाराजश्री का कहीं जाने का भी कार्यक्रम नहीं था ! कोई पार्षद भी दिखायी नहीं दे रहा था ! अचानक एक कक्ष से कुछ ध्वनि आने पर वैद्यजी ने उस कक्ष में जाकर देखा तो आश्चर्य चकित रह गये कि प.पू.पा.आचार्यश्री ज्येष्ठ की भरी दोपहर में चक्की चला कर भोग के लिये आटा तैयार कर रहे थे ! वैद्यजी को आया देख सरल और संकोची स्वभाव महाराजश्री सकपका गये और वैद्यजी भी थोडे रोष और विनम्रता से बोले कि इतनी गर्मी में शारीरिक कष्ट होते हुए भी क्या कर रहे हैं ! तब आपश्री ने बाल सुलभ सरलता से कहा कि आज शाम को भोग के लिये आटा नहीं था । राजा अम्बरीष को तो हमने देखा नहीं परन्तु अपने श्रीगुरुदेव के सेवा भाव को साक्षात देखकर सजल नयन नत मस्तक हो जाना स्वाभाविक  है कि ऐसा सेवा भाव हमें भी प्राप्त हो ।

एकादश संस्मरण— दो तोले सोना प्रतिदिन

मेरे जनक वैद्यजी ने कहीं सुना कि शालिगराम भगवान उनकी पूजा करने वाले को सवा ग्राम सोना प्रतिदिन देते हैं । एक दिन एकान्त में वैद्यजी ने प.पू.पा. श्रीगुरुदेव से पूँछ ही लिया कि क्या यह सच है तो महाराजश्री मुस्कुराये और बोले आजकल तो लगभग दो तोला सोना प्रतिदिन दे रहे हैं । वैद्यजी आश्चर्य से माहाराजश्री की ओर देखने लगे तब आपश्री बोले हाँ हाँ आजकल श्री सर्वेश्वर प्रभु को दो तोला सोने के मूल्य की भेंट आ ही जाती है । यह प्रसंग इसलिये लिखना पडा कि प्रभु अपने भक्तों की योगक्षेम श्रेष्ठता से करते हैं

द्वादश संस्मरण – निकुञ्ज में आचार्यश्री की कुञ्ज के दर्शन

मुझसे निकुञ्जोपासना की शिक्षा पू. श्रीजयकिशोर शरण जी से प्राप्त हुई । सखियों की कुञ्जें ,गुरु सखियों की कुञ्जें , आचार्य सखियों की कुञ्जें , सहचरियों की कुञ्जें आदि की जानकारी प्राप्त हुई । मेरा मन कल्पना की बजाय सहज दर्शन से यह जानना चाहता था कि आखिर ये कुञ्जें कैसी होती होती हैं ? एक दिन स्वप्न हुआ तो प.पू.पा. आचार्य सखी जू की कुञ्ज की विशालता और भव्यता के दर्शन करके आश्चर्य चकित रह गया ।

त्रयोदश संस्मरण— गोद में या चरणों में

एक बार दिल्ली में डालमियाजी की कोठी पर एक कार्यक्रम में बडे-बडे लोगों( उपदेशक वर्ग ) का ओछापन  और मूर्खता पुनः देखने को मिली । वहाँ पर वृन्दावन के बडे रासाचार्य के पुत्र विराजमान थे तो बक्सर वाले मामाजी भी विराजमान थे । व्यवहार में रासाचार्य के पुत्र का अहंकार और अशिष्टता सभी को अखर गयी थी उस पर भी दावा ये कि हम तो बडे-बडॆ सन्तों की गोद में खेले हैं । वहाँ गये लोगों के मध्य चर्चा होने लगी कि सन्तों की गोद में भले ही खेले होंगे परन्तु संतों के चरणों में नहीं रहे तभी तो ऐसा आचरण आलोचना का विषय बना हुआ है । घंटों यह चर्चा होने से मेरे मन में भी चिन्तन होने लगा कि सन्तों की गोद में रहना ठीक या चरणों रहना ठीक है कारण कि मैं भी सन्तों की गोद में खेला हूँ और तो और 45 वर्ष की आयु में भी स्वनाम धन्य पू. बाबा श्रीशुकदेव दास जी ने वृन्दावन में और ऐसे ही एक बार कोसी में बक्सर वाले श्री मामाजी ने अचानक ही अंकबद्ध करके गोद में बैठाने का प्रयास किया था मेरे गिडगिडाने पर गोरे दाऊजी वाले पू. श्रीहरिदास जी के हस्तक्षेप पर छोडा था । इन दोनों घटनाओं में काफी लोग गवाह बने थे और सजल नयन भाव विभोर हुए थे । मैं कुछ भी निर्णय नहीं कर सका । कई दिन तक खाते सोते एक ही चिन्तन कि गोद में या चरणों में ? एकदिन रात में सभी कार्य पूर्ण करके मैं अपनी चटायी पर सोने हेतु लेट गया । ग्रीष्म काल होने से मैं केवल लँगोटी में ही था । कमरा बन्द था और मैं एकदम अकेला । कुछ समय बाद मुझे नींद भी आ गयी । अचानक घबडा कर आँख खुल गयी कि बन्द कमरे में मेरे पास कौन लेटे हुए हैं ? पूर्ण जागने पर भी स्पर्श और दृष्टि सॆ स्पष्ट था कि मेरे बराबर में मुझे अपने हाथ से अंकबद्ध किये हुए लेटे हुए हैं । मुझे शरीर की कोमलता और आकार , आकृति का पूर्ण ज्ञान हो रहा था । मैं एकदम घबडाया हुआ था । इतने में मेरे अन्दर से आवाज आयी कि तू ही तो उलझा हुआ था कि चरणों में या गोद में ।

चतुर्दश  संस्मरण —  “बिहारी जी ने भेजा है”

ग्रीष्म काल की दोपहर में अचानक ही मैं मथुरा से वृन्दावन श्रीजी की कुञ्ज पहुँच गया । आनन्द आ गये कि आचार्यश्री बाहर गद्दी पर विराजे थे सहज ही दर्शन हो रहे थे । हृष्ट-पुष्ट सफेद खादी वस्त्रों में नेता जैसा एक व्यक्ति वहाँ आया और शिष्टता से प्रणाम करके पूँछने लगा कि आप हमें दीक्षा दे देंगे । आचार्यश्री मौन रहे तब उसने अपनी कहानी सुनायी । वे मथुरा के कोसी कस्बे में विद्युत विभाग में नौकरी करते थे और खूब मद्य-मांस सेवन करते हुए संसार को ही सार मान कर सर्व सुख ले रहे थे । एक दिन उनका एक मित्र उन्हें श्रीधाम वृन्दावन ले आया तब उन्होंने यहाँ मन्दिरों के दर्शन किये फिर वे बार-बार उन मित्र के साथ श्रीधाम वृन्दावन आने लगे फिर वृन्दावन का ऐसा रंग चढा कि उन्होंने अप्ना स्थानांतरण श्रीधाम वृन्दावन ही करा लिया और यहाँ के रंग में ही रंग गये , सारे दोष छूट गये , जीवन पूर्ण सात्विक हो गया । ये धाम की कृपा का साक्षात् प्रभाव था । किसी ने कहा कि गुरु बिना गति नहीं है अतः गुरु बनाओ । श्रीधाम में तो गुरुओं की कमी नहीं है फिर किसे बनायें लगभग छह महिने उलझे रहे तब उन्होंने श्रीबिहारी जी से ही प्रार्थना की कि किन को अपना गुरु बनायें आप ही बताइये । एक रात्रि में श्रीबिहारी जी ने स्वप्न में कहा कि श्रीजी महाराज को अपना गुरु बनाओ । अब श्री श्रीजी महाराज की खोज प्रारम्भ हुयी , श्रीजी की कुञ्ज आये , महाराजश्री के आगमन की प्रतीक्षा होने लगी और अंत में वो दिन आ ही गया , संयोगवश मैं जिसका साक्षी बना लगभग 100 लोगों के साथ । पूज्यपाद आचार्यश्री ने श्रीबिहारी जी की इच्छा की स्वीकृति दे दी और दो दिन बाद दीक्षा का समय निर्धारित हो गया । आज स्वयंभू गुरुओं और निर्लज्ज स्वयंभू जगद् गुरुओं की भीड में हमारे गुरुदेव से दीक्षा का आदेश स्वयं श्रीधाम वृन्दावन के एकमात्र नायक श्रीबिहारीजी देते हैं । हम आपश्री के शरणागत अपने सौभाग्य पर इठलाते हैं तो अनुचित नहीं है । इस संस्मरण को टंकण(टाइप) करते हुए भी मेरे नेत्र सजल हो गये

पञ्च्दश   संस्मरण—  “ बताओ यह क्या है !”

भयंकर शीतकाल में आचार्य पीठ जाना हुआ । एक दिन आपश्री धूप में विराज रहे थे । आपश्री ने अचानक आदेश किया कि अन्दर महल में औषधियों के मध्य एक हरे रंग की औषधि की कांच की शीशी को ले आओ । मैं ले आया तब आपश्री ने अपने करकमल से अंगुली से मुझे वह औषधि मेरे हाथ पर लगायी और एक चिकित्सक के रूप में पूँछ कि बताओ क्या है ? मैं अच्छी तरह पहचानने के बाद भी बताने में असमर्थ रहा तब आपश्री बार-बार पूँछते रहे । जब मैं असमर्थ रहा और पूँछा तो दंग रह गया । मैं पहचान तो रहा था परंतु प्रस्तुत द्रव्य का रंग रूप ही बदल दिया गया था इससे भ्रमित हो रहा था । अब तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि इस का आपश्री ने रंग-रूप कैसे बदल दिया !!! तब आपश्री ने बताया तो आनन्द आ गये वास्तव में आपश्री जगद् गुरु जी हैं और भवरोग वैद्य और वैद्य भी

षष्ठदश  संस्मरण — “ 2000 के भोजन में 20000 को भोजन ’’

आज से लगभग बीस वर्ष पूर्व की घटना है । नीमगांव में अधिक मास का उत्सव चल रहा था इसी मध्य आचार्यश्री का भी अचानक पादार्पण हुआ । अब तो भीड की भीड उमड पडी । व्यवस्थापकों ने लगभग 2000 लोगों की प्रसादी की व्यवस्था कर रखी थी और लोग आ गये लगभग 20000 । अचानक में और ग्रामीण अंचल नीमगांव में व्यवस्था बनना काफी कठिन था और कमी पडने पर जनता के मध्य ठीक सन्देश नहीं जाता । व्यवस्थापकों के हाथ-पैर फूल गये और “ कर्तुं अकर्तुं अन्यथा कर्तुं समर्थ ”  आचार्यश्री चरणों में गिडगिडाने लगे तब आपश्री ने आदेश दिया कि रसोई से सभी लोगों को बाहर कर दो , हम अभी आ रहे हैं । आपश्री एक लम्बा थान जैसा वस्त्र अपने कर-कमलों में लिये  नीचे रसोई में पधारे और निर्मित भोग से भरे सभी भगोने एक पंक्ति में रखवाकर ऊपर से वह वस्त्र आपश्री ने ढक दिया और आदेश दिया कि इस वस्त्र को हटाना नहीं जो चाहे थोडासा खोल कर निकाल लिया करें और सब को पंगत कराओ । आश्चर्य की बात 2000 की रसोई में 20000 लोग तृप्त होकर चले गये परंतु भगोने पहले जैसे ही भरे थे । धन्य हैं हमारे भाग्य “ आचार्यं माम् विजानीयात् ”  के अनुसार तो अन्नपूर्णा भी आप ही हुए ।

सप्तदश संस्मरण – गर्म कपडे छुडवा दिये

ग्रीष्म काल में आचार्य जाना हुआ । उस समय मेरे पिताश्री भी वहीं पर थे । मैंने अपने पिताजी से उनको महाराजश्री के व्दारा प्रदत्त एक सूती वस्त्र माँगा परन्तु उन्होंने मना कर दिया । शामको ही प्रस्थान के समय मुझे महाराजश्री ने चलते-चलते रोक कर एक बहुत बडा वस्त्र आशीर्वाद स्वरूप प्रदान किया मुझे बहुत आश्चर्यमय आनन्द हुआ परन्तु मुझे खिन्नता भी हुयी कि वस्त्र इतना बडा था और कुछ मोटा था कि उसे पहनना कठिन था । प्रसन्नता से झूमते हुए दिल्ली आगये । आगे सर्दी आने पर  श्रीठाकुर जी का गर्म कपडे छोडने आदेश का हुआ तो सारे गर्म कपडे निकाल के फेंक दिये । शामको सर्दी लगी तो जान निकलने लगी तब सोचने लगा कि अब क्या करुँ ? कपडे के सन्दूक को खोल कर देखने लगा कि कुछ ऐसा है क्या कि श्रीठाकुर जी की बात भी रह जाय और सर्दी से प्राण भी बच जांयें । और तो कुछ मिला नहीं वही इसी वर्ष श्रीगुरुदेव के व्दारा प्रदत्त मोटी सूती चादर मिल गयी । डूबते को तिनके के सहारे की तरह उस चादर को ओढ लिया । वाह क्या चमत्कार ! वह सामान्य सूती चादर गर्म वस्त्र से भी अधिक गरमायी दे रही थी । भविष्यदृष्टा जिमि राखइ बालक महतारी हैं मेरे गुरुदेव आचार्यश्री ।

अष्टादश संस्करण – आराम है न !!

एक बार होली से कुछ दिन पूर्व ही मेरे बांये हाथ  की कलायी पर हड्डी टूट गयी परन्तु मैंने किसी भी कार्य में कोई परिवर्तन नहीं किया । रोते-धोते सारे कार्य पूर्ववत् करता रहा हाथ पर मोटी पट्टी बाँध । भयंकर वेदना को भी सहता रहा , भारी वजन भी उठाता रहा । होली का उत्सव भी किया और फिर बल्लभगढ वालों के साथ दल बल सहित आचार्यपीठ गये । प्रातः 8 बजे ही श्रीगुरुदेव ने मुझे महल में बुला लिया , कुशलक्षेम पूँछी , अन्यान्य चर्चाएं हुयी , इतने में ही आपश्री की दृष्टि हाथ की कलायी पर बँधी मोटी पट्टी पर पडी तो आपश्री ने पूँछा कि ये क्या हो गया ? मैंने बताया कि हड्डी टूट गयी है । मेरे इतना कहते ही आपश्री के मुखार्विन्द पर एकदम चिन्ताके साथ मलिनता छागयी । मैं भी मुखार्विन्द देख कर घबडा गया । मानो मेरे हाथ की हड्डी न टूटी हो बल्कि आचार्यश्री की ही हड्डी टूटी हो । मैंने बात सम्भाली , जै जै मेरे को कोई कष्ट नहीं है जितना कष्ट होना चाहिये उससे मात्र 5 प्रतिशत ही है । तब आपश्री फूलती श्वास से वक्ष पर हाथ रख कर बोले ‘ आराम है ना ’ । उस दिन तो मैं भी घबडा गया कि मेरी थोडी सी पीडा मेरे गुरुदेव को इतना व्यथित कर गयी ।

एकोंविंशति संस्मरण – “ शरीर से ही तो यहाँ हैं ”

मेरे ऊपर उन दिनों भूत-प्रेत , गुंडों , पुलिस , गद्दारों , तांत्रिकों का कहर चरम पर था । मेरे निवास की व्दार घंटी रात को 1-30 से 3-30 तक स्वतः ही बजती थी भयानक भूत-प्रेत , अपशकुन और एक ही बात या तो झुक जाओ या जान से मार देंगे । सबकुछ बर्बाद और मौत के क्षण अनेकों बार सामने । मैं युगल-नाम जाप पर पूर्ण अनन्यता से अडिग । लाभ-हानि या जय-पराजय या मृत्यु-जीवन की कोई परवाह नहीं । धीरज धर्म मित्र अरु नारी । आपद काल परखिये चारी ॥ प.पू.पा. गुरुदेव मेरे साथ , कम से कम प्रति सप्ताह फोन व्दारा समाचार देते रहने का आदेश । एकदिन फोन पर ही आपश्री बोले कि हम शरीर से ही तो यहाँ(आचार्यपीठ) हैं वैसे तो…….. । सच आज भी मेरे गुरुदेव हर समय मेरे साथ ही रहते हैं । श्रीश्रीजी महाराज महिमामृत के संस्मरण भी पढने योग्य हैं ।

विंशति संस्मरण – श्री गुरुदेव का सर्व श्रेयस्करत्व

मेरी इच्छा लेखन हो या चिकित्सा छोटे कार्यों को करने की नहीं रहती है कुछ विशेष होना चाहिये । शोध और चिकित्सा का सारा श्रेय एकमात्र श्रीगुरुदेव को ही जाता है इसका एक उदाहरण ही पर्याप्त है । मैं चिकित्सा में कुछ प्लेसीबो ढूँढ रहा था जो रोगी को हानि भी न दे कारण कि कभी  क्या अधिकांश असाध्य और जीर्ण आसन्न मृत्यु रोगी को औषधि की कम गोलियां दो तो उसकी मानसिकता अर्थात् श्रध्दा-विश्वास में कमी आजाती है और ठीक होने में बिलम्ब होता है । मैं पूर्ण निरापद प्लेसीबो ढूँढ ही रहा था कि एक औषधि मेरे को ठीक लगी मैं उसे प्रयोग करने लगा । मुझे बडा आश्चर्य हुआ कि वह औषधि प्लेसीबो नहीं थी वह तो अनेको रोगों की औषधि और टाँनिक अमृत था । मैं मन ही मन प्रसन्न था । कुछ महिनो के बाद आचार्यपीठ जाना हुआ । मैं महल के आगे से निकल रहा था , व्दार खुले होने से मैं अन्दर चला गया , महाराजश्री मुझे देखते ही प्रसन्न हुए और सामने बैठे सज्जन ( युवराज के चाचा जी ) से परिचय कराया फिर औषधियों पर चर्चा होने लगी । मैंने उक्त औषधि की चर्चा की तो गुरुदेव बहुत ही प्रसन्नता से उस औषधि का समर्थन करने लगे और फिर स्वयं ही उस औषधि के गुणों ग्रंथ से पढ कर सुनाने लगे । मैं आश्चर्य चकित था कि मुझे तो बिना पढे ही प्रेरित करके रोगियों का हित करवा रहे थे मेरे गुरुदेव । ऐसे अनेकों उदाहरण आनन्द देते रहते हैं ।

श्रीसर्वेश्वर प्रभु :-
सलेमाबाद में विराजमान श्रीसर्वेश्वर प्रभु श्री शालग्राम जी के बारे में कई पुराणों एवं उपनिषदो में वर्णन मिलता है। जैसे माण्डूक्योपनिषद के मन्त्र में भगवान्‌ सर्वेश्वर श्रीहरि की महिमा का वर्णन करते हुये लिखा गया है :-
एष सर्वेश्वर सर्वज्ञ एषोन्तर्याम्येष:।
योनि: सर्वस्य प्रभवाप्ययोहि भूतानाम्‌।।
अर्थात्‌ :-यह सर्वेश्वर भगवान्‌ सर्वज्ञ है। यह प्राणी मात्र अर्थात्‌ चराचर जगत्‌ में अन्तर्यामी रूप से व्याप्त हैं। सम्पूर्ण जगत्‌ का यह कारण है। प्राणियों की उत्पत्ति्, उनका पालन और समय पूर्ण होने पर उनका संहार भी उन्हीं सर्वेश्वर श्रीहरि के द्वारा होता हैं।
श्रीसर्वेश्वर प्रभु सलेमाबाद में किस प्रकार पधारे, इस बारे में कथा इस प्रकार है-
एक बार जब ब्रह्मा जी ने सनकादिक ऋषियों से कहा कि वे भगवान्‌ की पूजा करें तो सनकादिक ऋषियों ने ब्रह्मा जी से पूछा कि वे किस भगवान्‌ की पूजा करें। तब ब्रह्मा जी ने उन्हें सूचित किया कि वे गण्डक नदी के उद्गम स्थल पर स्थित दामोदर कुण्ड जो कि वर्तमान में नेपाल में मुक्तिनारायण धाम से आगे स्थित हैं पर जायें, जहा तुलसी पत्र पर भगवान्‌ विष्णु का प्रतिरूप प्राप्त होगा। आप उसी की पूजा करें। इसके पचात्‌ सनकादि ऋषि दामोदर कुण्ड गये तो वहा उन्हें तुलसी पत्र पर भगवान्‌ विष्णु के प्रतिरूप श्री शालग्राम प्राप्त हुये। इनका नाम श्री सर्वेश्वर प्रभु रखा गया। तथा इस श्रीविग्रह की श्रीसनकादिको द्वारा पूजा अर्चना की गई।
गोर-श्यामावभासं तं सूक्ष्मदिव्यमनोहरम्‌।
वन्दे सर्वेश्वरं देवं श्रीसनकादिसेवितम्‌।।
अर्थात्‌ :- गौर और श्याम इन दो बिन्दुओं से सुशोभित,श्यामल विग्रह, सूक्ष्माकार, दिव्य मनोहर उन शालग्राम स्वरूप श्रीसर्वेश्वर प्रभु की मैं वन्दना करता हूँ। जिनकी आराधना-पूजा महर्षि सनकादिक एवं देवर्षि नारद ने भी की थी।
यही श्रीविग्रह श्री सनकादिको ने देवर्षि नारद जी को प्रदान किया था। नारद जी ने यही श्रीविग्रह भगवान्‌ श्रीनिम्बार्काचार्य जी को प्रदान किया था। तब से ही परम्परानुसार यह श्रीविग्रह श्रीनिम्बार्काचार्यपीठ, श्रीनिम्बार्कतीर्थ सलेमाबाद में विराजमान है। इसका प्रमाण हमें श्रीनिम्बार्कपादपीठाधीश्वर जगद्गुरु श्रीनिम्बार्कशरण देवाचार्यजी महाराज द्वारा स्वरचित ’’श्रीसर्वेश्वर प्रपत्ति स्तोत्र’’ के प्रथम श्लोक में मिलता है।
’’कृष्णं सर्वेश्वरं देवमस्माकं कुलदैवतम्‌’’
अर्थात्‌ :- श्रीसर्वेश्वर प्रभु हमारे कुलदेव है अर्थात्‌ परम्परागत ठाकुर है।
श्रीनिम्बार्कपादपीठाधीश्वर जगद्गुरु श्रीराधासर्वेश्वरशरण् देवाचार्यजी महाराज ने भी इस बारे में लिखा है :-
श्रीसनकादिक सेव्य हैं, श्रीसर्वेश्वर देव।
परम्परागत प्राप्त हैं,’’शरण’’ लसत शुभ सेव।।1।।
सर्वेश्वर प्रभु अर्चना, सुरर्षि नारद प्राप्त।
सनकादिक सेवित प्रभु,’’शरण’’ निम्बार्क आप्त।।2।।