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श्रीराधा तत्व का वेदों में वर्णन —

**राधा तत्वामृत** ——-राधा —व्युत्पत्ति व उदभव—- ——राधा एक कल्पना है या वास्तविक चरित्र, यह सदियों से तर्कशील व्यक्तियों विज्ञजनों के मन में प्रश्न बनकर उठता रहा है| अधिकाँशतः जन राधा के चरित्र को काल्पनिक एवं पौराणिक काल में रचा गया मानते हैं | कुछ विद्वानों के अनुसार कृष्ण की आराधिका का ही रुप राधा हैं। आराधिका शब्द में से अ हटा देने से राधिका बनता है। राधाजी का जन्म यमुना के निकट स्थित रावल ग्राम में हुआ था। यहाँ राधा का मंदिर भी है। राधारानी का विश्व प्रसिद्ध मंदिर बरसाना ग्राम की पहाड़ी पर स्थित है। ——- यह आश्चर्य की बात हे कि राधा-कृष्ण की इतनी अभिन्नता होते हुए भी महाभारत या भागवत पुराण में राधा का नामोल्लेख नहीं मिलता, यद्यपि कृष्ण की एक प्रिय सखी का संकेत अवश्य है। राधा ने श्रीकृष्ण के प्रेम के लिए सामाजिक बंधनों का उल्लंघन किया। कृष्ण की अनुपस्थिति में उसके प्रेम-भाव में और भी वृद्धि हुई। दोनों का पुनर्मिलन कुरूक्षेत्र में बताया जाता है जहां सूर्यग्रहण के अवसर पर द्वारिका से कृष्ण और वृन्दावन से नंद, राधा आदि गए थे। ——-यहाँ पर हम वस्तुतः राधा शब्द व चरित्र कहाँ से आया इस प्रश्न पर कुछ प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे | प्रयत्न ही कर सकते हैं, यद्यपि यह भी एक धृष्टता ही है क्योंकि भक्ति प्रधान इस देश में श्रीकृष्ण (श्री राधाजी व श्री कृष्ण ) स्वयं ही ब्रह्म व आदि-शक्ति रूप माने जाते हैं अतः सत्य तो वे ही जानते हैं | *** राधा का चरित्र-वर्णन, श्रीमदभागवत में स्पष्ट नहीं मिलता ….वेद-उपनिषद में भी राधा का उल्लेख नहीं है….राधा-कृष्ण का सांगोपांग वर्णन ‘गीत-गोविन्द’ से मिलता है| —–वेदों में राधा शब्द —– ——-सर्व-प्रथम ऋग्वेद के भाग-१ /मंडल १,२ …में …राधस शब्द का प्रयोग हुआ है ….जिसे वैभव के अर्थ में प्रयोग किया गया है…… ——-ऋग्वेद के २/म.३-४-५ में ..सुराधा …शब्द का प्रयोग श्रेष्ठ धनों से युक्त के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है…सभी देवों से उनकी अपनी संरक्षक शक्ति का उपयोग करके धनों की प्राप्ति व प्राकृतिक साधनों के उचित प्रयोग की प्रार्थना की गयी है| ऋग्वेद-५/५२/४०९४..में — राधो व आराधना शब्द ..शोधकार्यों के लिए प्रयुक्त किये गए हैं…यथा.. “ यमुनामयादि श्रुतमुद्राधो गव्यं म्रजे निराधो अश्वं म्रजे |”…. ——अर्थात यमुना के किनारे गाय ..घोड़ों आदि धनों का वर्धन, वृद्धि, संशोधन व उत्पादन आराधना सहित करें या किया जाता है | एवं….. “गवामप ब्रजं वृधि कृणुश्व राधो अद्रिव: नहि त्वा रोदसी उभे ऋघायमाणमिन्वतः |” ——कृष्ण = क्र = कार्य = कर्म —–राधो = अराधना, राधन ( गूंथना ), शोध, शोधन, नियमितता, साधना …अर्थात ब्रज में गौ – ज्ञान, सभ्यता उन्नति की वृद्धि …कृष्ण-राधा द्वारा हुई = …कर्म व साधना द्वारा की गयी शोधों से हुई | इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते पिवा त्वस्य गिर्वण (ऋग्वेद ३. ५ १. १ ०) —ओ राधापति ( परम पुरुष अंश विष्णु ) वेद मन्त्र भी तुम्हें जपते हैं। उनके द्वारा सोमरस पान करो। ——-विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधस : सवितारं नृचक्षसं (ऋग्वेद १ २ २. ७). ——-ओ सब के हृदय में विराजमान सर्वज्ञाता दृष्टा जो हमारी आराधना सुनें हमारी रक्षा करो। त्वं नृचक्सम वृषभानुपूर्वी : कृष्नास्वग्ने अरुषोविभाही …(ऋग्वेद ) ——–इस मन्त्र में श्री राधा के पिता वृषभानु का उल्लेख किया गया है जो अन्य किसी भी प्रकार के संदेह को मिटा देता है ,क्योंकि वही तो राधा के पिता हैं। ——यस्या रेणुं पादयोर्विश्वभर्ता धरते मूर्धिन प्रेमयुक्त : —(अथर्ववेदीय राधिकोपनिषद ) —-राधा वह शख्शियत है जिसके कमलवत चरणों की रज श्रीकृष्ण प्रेमपूर्वक अपने माथे पे लगाते हैं। **तमिलनाडू की गाथा के अनुसार –दक्षिण भारत का अय्यर जाति समूह, उत्तर के यादव के समकक्ष हैं | एक कथा के अनुसार गोप व ग्वाले ही कंस के अत्याचारों से डर कर दक्षिण तमिलनाडू चले गए थे | उनके नायक की पुत्री नप्पिंनई से कृष्ण ने विवाह किया — श्रीकृष्ण ने नप्पिंनई को ७ बैलों को हराकर जीता था | तमिल गाथाओं के अनुसार नप्पिनयी नीला देवी का अवतार है जो ऋग्वेद की तैत्रीय संहिता के अनुसार —विष्णु पत्नी सूक्त या अदिति सूक्त या नीला देवी सूक्त में राधा ही हैं जिन्हें अदिति –दिशाओं की देवी भी कहते हैं | नीला देवी या राधा परमशक्ति की मूल आदि-शक्ति हैं –अदिति …| ———श्री कृष्ण की एक पत्नी कौशल देश की राजकुमारी—नीला भी थी, जो यही नाप्पिनायी ही है जो दक्षिण की राधा है | एक कथा के अनुसार राधाके कुटुंब के लोग ही दक्षिण चले गए अतः नप्पिंनई राधा ही थी | —–पुराणों में श्री राधे :—– ——–वेदव्यास जी ने श्रीमदभागवतम के अलावा १७ और पुराण रचे हैं इनमें से छ :में श्री राधारानी का उल्लेख है। यथा राधा प्रिया विष्णो : (पद्मपुराण ) राधा वामांश संभूता महालक्ष्मीर्प्रकीर्तिता (नारद पुराण ) तत्रापि राधिका शश्वत (आदि पुराण ) रुक्मणी द्वारवत्याम तु राधा वृन्दावन वने (मत्स्य पुराण १३. ३७ ) राध्नोति सकलान कामान तेन राधा प्रकीर्तित :(देवी भागवत पुराण ) —–यां गोपीमनयत कृष्णो (श्रीमद भागवतम १०.३०.३५ ) —श्री कृष्ण एक गोपी को साथ लेकर अगोचर हो गए। महारास से विलग हो गए। गोपी, राधा का एक नामहै| —-अन्याअ अराधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वर : -(श्रीमद भागवतम ) —-इस गोपी ने कृष्ण की अनन्य भक्ति( आराधना) की है। इसीलिए कृष्ण उन्हें अपने (संग रखे हैं ) संग ले गए, इसीलिये वह आराधिका …राधिका है | ——— वस्तुतः ऋग्वेदिक व यजुर्वेद व अथर्व वेदिक साहित्य में ’ राधा’ शब्द की व्युत्पत्ति = रयि (संसार, ऐश्वर्य, श्री, वैभव) +धा (धारक, धारण करने वालीशक्ति) से हुई है; अतः जब उपनिषद व संहिताओं के ज्ञान मार्गीकाल में सृष्टि के कर्ता का ब्रह्म व पुरुष, परमात्मा रूप में वर्णन हुआ तो समस्त संसार की धारक चितशक्ति, ह्लादिनी शक्ति, परमेश्वरी राधा का आविर्भाव हुआ| —-भविष्य पुराण में–जब वेद को स्वयं साक्षात नारायण कहा गया तो उनकी मूल कृतित्व – काल, कर्म, धर्म व काम के अधिष्ठाता हुए—कालरूप- कृष्ण व उनकी सहोदरी (साथ-साथ उदभूत) राधा-परमेश्वरी……कर्म रूप – ब्रह्मा व नियति (सहोदरी)…. धर्म रूप-महादेव व श्रद्धा (सहोदरी) …..एवम कामरूप-अनिरुद्ध व उषा ( सहोदरी )—- इस प्रकार राधा परमात्व तत्व कृष्ण की चिर सहचरी, चिच्छित-शक्ति (ब्रह्मसंहिता) है। ——वही परवर्ती साहित्य में…. श्रीकृष्ण का लीला-रमण व लौकिक रूप के आविर्भाव के साथ उनकी साथी, प्रेमिका, पत्नी हुई व ब्रजबासिनी रूप में जन-नेत्री। ——भागवत-पुराण …मैं जो आराधिता नाम की गोपी का उल्लेख है …… किसी एक प्रिय गोपी को भगवान श्री कृष्ण महारास के मध्य में लोप होते समय साथ ले गये थे जिसे ’मान ’ होने पर छोडकर अन्तर्ध्यान हुए थे; संभवतः यह वही गोपी रही होगी जिसे गीत-गोविन्द के रचयिता विद्यापति व सूरदास आदि परवर्ती कवियों, भक्तों ने श्रंगारभूति श्रीकृष्ण (पुरुष) की रसेश्वरी (प्रक्रति) राधा….के रूप मेंकल्पित व प्रतिष्ठित किया। ——-महाभारत में राधा —— ——– उल्लेख उस समय आ सकता था जब शिशुपाल श्रीकृष्ण की लम्पटता का बखान कर रहा था| परन्तु भागवतकार निश्चय ही राधा जैसे पावन चरित्र को इसमें घसीटना नहीं चाहता होगा, अतः शिशुपाल से केवल सांकेतिक भाषा में कहलवाया गया, अनर्गल बात नहीं कहलवाई गयी| ——– कुछ विद्वानों के अनुसार महाभारत में तत्व रूप में राधा का नाम सर्वत्र है क्योंकि उसमें कृष्ण को सदैव श्रीकृष्ण कहा गया है | श्री का अर्थ राधा ही है जो आत्मतत्व की भांति सर्वत्र अंतर्गुन्थित है, श्रीकृष्ण = राधाकृष्ण | **श्री कृष्ण की विख्यात प्राणसखी और उपासिका राधा वृषभानु नामक गोप की पुत्री थी। राधा कृष्ण शाश्वत प्रेम का प्रतीक हैं। राधा की माता कीर्ति के लिए ‘वृषभानु पत्नी’शब्द का प्रयोग किया जाता है। राधा को कृष्ण की प्रेमिका और कहीं-कहीं पत्नी के रुप में माना जाता हैं। राधा वृषभानु की पुत्री थी। पद्म पुराणने इसे वृषभानु राजा की कन्या बताया है। यह राजा जब यज्ञ की भूमि साफ कर रहा था, इसे भूमि कन्या के रूप में राधा मिली। राजा ने अपनी कन्या मानकर इसका पालन-पोषण किया। यह भी कथा मिलती है कि विष्णु ने कृष्ण अवतार लेते समय अपने परिवार के सभी देवताओं से पृथ्वी पर अवतार लेने के लिए कहा। तभी राधा भी जो चतुर्भुज विष्णु की अर्धांगिनी और लक्ष्मी के रूप में वैकुंठलोक में निवास करती थीं, राधा बनकर पृथ्वी पर आई। ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार राधा कृष्ण की सखी थी और उसका विवाह रापाण अथवा रायाण नामक व्यक्ति के साथ हुआ था। अन्यत्र राधा और कृष्ण के विवाह का भी उल्लेख मिलता है। कहते हैं, राधा अपने जन्म के समय ही वयस्क हो गई थी। ———यह भी किम्बदन्ती है कि जन्म के समय राधा अन्धी थी और यमुना में नहाते समय जाते हुए राजा वृषभानु को सरोवर में कमल के पुष्प पर खेलती हुई मिली। शिशु अवस्था में ही श्री कृष्ण की माता यशोदा के साथ बरसाना में प्रथम मुलाक़ात हुई, पालने में सोते हुए राधा को कृष्ण द्वारा झांक कर देखते ही जन्मांध राधा की आँखें खुल गईं | ** महान कवियों- लेखकों ने राधा के पक्ष में कान्हा को निर्मोही जैसी उपाधि दी। दे भी क्यूँ न ? राधा का प्रेम ही ऐसा अलौकिक था…उसकी साक्षी थी यमुना जी की लहरें, वृन्दावन की वे कुंजवे गलियाँ वो कदम्ब का पेड़, वो गोधुली बेला जब श्याम गायें चरा कर वापिस आते वो मुरली की स्वर लहरी जो सदैव वहाँ की हवाओं में विद्यमान रहती थी । ——राधा जो वनों में भटकती, कृष्ण कृष्ण पुकारती, अपने प्रेम को अमर बनाती, उसकी पुकार सुन कर भी ,कृष्ण ने एक बार भी पलट कर पीछे नही देखा। …तो क्यूँ न वो निर्मोही एवं कठोर हृदय कहलाए । **किन्तु कृष्ण के हृदय का स्पंदन किसी ने नहीं सुना। स्वयं कृष्ण को कहाँ कभी समय मिला कि वो अपने हृदय की बात..मन की बात सुन सकें। जब अपने ही कुटुंब से व्यथित हो कर वे प्रभास -क्षेत्र में लेट कर चिंतन कर रहे थे तब ‘जरा’के छोडे तीर की चुभन महसूस हुई। उन्होंने देहोत्सर्ग करते हुए ‘राधा’शब्द का उच्चारण किया। जिसे ‘जरा’ने सुना और ‘उद्धव’को जो उसी समय वह पहुँचे..उन्हें सुनाया। उद्धव की आँखों से आँसू लगतार बहने लगे। सभी लोगों को कृष्ण का संदेश देने के बाद जब उद्धव राधा के पास पहुँचे तो वे केवल इतना कह सके —“राधा, कान्हा तो सारे संसार के थे ..” ——–किन्तु राधा तो केवल कृष्ण के हृदय में थी…….कान्हा के ह्रदय में तो केवल राधा थीं …. **समस्त भारतीय वाङग्मय के अघ्ययन से प्रकट होता है कि राधा प्रेम का प्रतीक थीं और कृष्ण और राधा के बीच दैहिक संबंधों की कोई भी अवधारणा शास्त्रों में नहीं है। इसलिए इस प्रेम को शाश्वत प्रेम की श्रेणी में रखते हैं। इसलिए कृष्ण के साथ सदा राधाजी को ही प्रतिष्ठा मिली। ——-बरसाना के श्रीजी के मंदिर में ठाकुर जी भी रहते हैं | भले ही चूनर ओढ़ा देते हैं सखी वेष में रहते हैं ताकि कोई जान न पाये | महात्माओं से सुनते हैं कि ऐसा संसार में कहीं नहीं है जहाँ कृष्ण सखी वेश में रहते हैं | जो पूर्ण पुरुषोत्तम पुरुष सखी बने ऐसा केवल बरसाने में है | अति सरस्यौ बरसानो जू | राजत रमणीक रवानों जू || जहाँ मनिमय मंदिर सोहै जू | **श्रीकृष्ण तत्वामृत** —–वो कृष्णा है —-. *वो गाय चराता है, गोमृत दुहता है…दधि खाता है…उसे माखन बहुत सुहाता है …वह गोपाल है…..गोविन्द है…..वो कृष्ना है ……. ——-गौ अर्थात गाय, ज्ञान, बुद्धि, इन्द्रियां, धरतीमाता ….अतः वह बुद्धि, ज्ञान , इन्द्रियों का, समस्त धरती का (कृषक ) पालक है –गोपाल, वह गौ को प्रसन्नता देता है (विन्दते) गोविन्द है ….. दधि…अर्थात स्थिर बुद्धि, प्रज्ञा …को पहचानता है…उसके अनुरूप कार्य करता है वह दधि खाता है … ——माखन उसको सबसे प्रिय है …..माखन अर्थात गौदुग्ध को बिलो कर आलोड़ित करके प्राप्त उसका तत्व ज्ञान पर आचरण करना व संसार को देना उसे सबसे प्रिय है .. ** “सर्वोपनिषद गावो दोग्धा नन्द नन्दनं “ …सभी उपनिषद् गायें हैं जिन्हें नन्द नंदन श्री कृष्ण ने दुहा ….गीतामृत रूपी माखन स्वयं खाया, प्रयोग किया ….संसार को प्रदान करने हेतु….. ** वह बाल लीलाएं करता हुआ कंस जैसे महान अत्याचारी सम्राट का अंत करता है … *वो प्रेम गीत गाता है वह गोपिकाओं के साथ रमण करता है, नाचता है , प्रेम करता है , राधा का प्रेमी है, कुब्जा का प्रेमी है …मोहन है …परन्तु उसे किसी से भी प्रेम नहीं है…निर्मोही है …वह किसी का नहीं .. वह सभी से सामान रूप से प्रेम करता है ..वह सबका है और सब उसके … **वो आठ पटरानियों का एवं १६०० पत्नियों का पति है, पुत्र-पुत्रियों में, संसार में लिप्त है …परन्तु योगीराज है, योगेश्वर है | **वो कर्म के गीत गाता है एवं युद्ध क्षेत्र में भी भक्ति व ज्ञान का मार्ग, धर्म की राह दिखाता है ,,,गीता रचता है …. —- वो रणछोड़ है …वो स्वयं युद्ध नहीं करता, अस्त्र नहीं उठाता, परन्तु विश्व के सबसे भीषण युद्ध का प्रणेता, संचालक व कारक है | —अपने सम्मुख ही अपनी नारायणी सेना का विनाश कराता है, कुलनाश कराता है… —काल के महान विद्वान् उसके आगे शीश झुकाते हैं … ————वो कृष्णा, कृष्ण है श्री कृष्ण है …………… **वह कोइ विशेषज्ञ नहीं अपितु शेषज्ञ है उसके आगे काल व ज्ञान स्वयं शेष होजाते हैं | ———- वह कृष्ण है ………. @@@@@ कर्म शब्द कृ धातु से निकला है कृ धातु का अर्थ है करना। इस शब्द का पारिभाषिक अर्थ कर्मफल भी होता है। —–कृ से उत्पन्न कृष का अर्थ है विलेखण……आचार्यगण कहते हैं….. ‘संसिद्धि: फल संपत्ति:’ अर्थात फल के रूप में परिणत होना ही संसिद्धि है और ‘विलेखनं हलोत्कीरणं ” अर्थात विलेखन शब्द का अर्थ है हल-जोतना |..जो तत्पश्चात अन्नोत्पत्ति के कारण ..मानव जीवन के सुख-आनंद का कारण …अतः कृष्ण का अर्थ.. कृष्णन, कर्षण, आकर्षक, आकर्षण व आनंद स्वरूप हुआ… | —-वो कृष्ण है —— ‘संस्कृति’शब्द भी ….’कृष्टि’शब्द से बना है, जिसकी व्युत्पत्ति संस्कृत की ‘कृष’धातु से मानी जाती है, जिसका अर्थ है- ‘खेती करना’, संवर्धन करना, बोना आदि होता है। सांकेतिक अथवा लाक्षणिक अर्थ होगा- जीवन की मिट्टी को जोतना और बोना। …..‘संस्कृति’ शब्द का अंग्रेजी पर्याय “कल्चर”शब्द ( ( कृष्टि -कल्ट कल्चर ) भी वही अर्थ देता है। कृषि के लिए जिस प्रकार भूमि शोधन और निर्माण की प्रक्रिया आवश्यक है, उसी प्रकार संस्कृति के लिए भी मन के संस्कार–परिष्कार की अपेक्षा होती है। __अत: जो कर्म द्वारा मन के, समाज के परिष्करण का मार्ग प्रशस्त करता है वह कृष्ण है… | ‘कृष’धातु में ‘ण’प्रत्यय जोड़ कर ‘कृष्ण’बना है जिसका अर्थ आकर्षक व आनंद स्वरूप कृष्ण है.. —वो कृष्ना है…कृष्ण है ….. **शिव–नारद संवाद में शिव का कथन —‘कृष्ण शब्द में कृष शब्द का अर्थ समस्त और ‘न’का अर्थ मैं…आत्मा है .इसीलिये वह सर्वआत्मा परमब्रह्म कृष्ण नाम से कहे जाते हैं| कृष का अर्थ आड़े’.. और न.. का अर्थ आत्मा होने से वे सबके आदि पुरुष हैं |”.. —–..अर्थात कृष का अर्थ आड़े-तिरछा और न (न:=मैं, हम…नाम ) का अर्थ आत्मा ( आत्म ) होने से वे सबके आदि पुरुष हैं…कृष्ण हैं| क्रिष्ट..क्लिष्ट …टेड़े..त्रिभंगी…कृष्ण की त्रिभंगी मुद्रा का यही तत्व-अर्थ है… ** कृष्ण = क्र या कृ = करना, कार्य=कर्म …..राधो = आराधना, राधन, रांधना, गूंथना, शोध, नियमितता , साधना….राधा…. गवामप ब्रजं वृधि कृणुश्व राधो अद्रिव: नहि त्वा रोदसी उभे ऋघायमाणमिन्वतः |…ऋग्वेद —ब्रज में गौ – ज्ञान, सभ्यता उन्नति की वृद्धि …कृष्ण-राधा द्वारा हुई = कर्म व साधना द्वारा की गयी शोधों से हुई ….साधना के बिना कर्म सफल कब होता है … वो राधा है **राध धातु से राधा और कृष धातु से कृष्ण नाम व्युत्पन्न हुये| राध धातु का अर्थ है संसिद्धि ( वैदिक रयि= संसार..धन, समृद्धि एवं धा = धारक )… —-ऋग्वेद-५/५२/४०९४– में राधो व आराधना शब्द ..शोधकार्यों के लिए प्रयुक्त किये गए हैं…यथा.. “ यमुनामयादि श्रुतमुद्राधो गव्यं म्रजे निराधो अश्वं म्रजे |”….अर्थात यमुना के किनारे गाय ..घोड़ों आदि धनों का वर्धन, वृद्धि, संशोधन व उत्पादन आराधना सहित करें या किया जाता है | **नारद पंचरात्र में राधा का एक नाम हरा या हारा भी वर्णित है…वर्णित है | जो गौडीय वैष्णव सम्प्रदाय में प्रचलित है| अतः महामंत्र की उत्पत्ति…. *** हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे// —- ——-सामवेद की छान्दोग्य उपनिषद् में कथन है… ”स्यामक केवलं प्रपध्यये, स्वालक च्यमं प्रपध्यये स्यामक”…. —-श्यामक अर्थात काले की सहायता से श्वेत का ज्ञान होता है (सेवा प्राप्त होती है).. तथा श्वेत की सहायता से हमें स्याम का ज्ञान होता है ( सेवा का अवसर मिलता है)….यहाँ श्याम ..कृष्ण का एवं श्वेत राधा का प्रतीक है |

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सूर्य देव का उत्तरायण आगमन मकर संक्रांति।। धूम्रोरात्रिस्तथाकृष्ण:षण्मासादक्षिणायनम्।
यत्रचान्द्रमसंज्योतिर्योगीप्राप्यनिवर्तते।।
शुक्लेकृष्णेगतीह्येतेजगत: शाश्वतेमते।
एकयायात्यनावृत्तिमन्ययावर्ततेपुन:।।(गीता 8/25,26)

संसार में अन्तिम गति के दो ही मार्ग हैं। एक है धूम्र मार्ग और दूसरा है अर्चिमार्ग। धूम्रमार्ग पितृयान मार्ग है और अर्चिमार्ग है देवयान मार्ग। पितृ यान यानि धूम्रमार्ग से जाने वाले पितृ लोक की प्राप्ति करके पुनः संसार में लौट आते हैं और अर्चि यानि देवयान मार्ग से जाने वाले मोक्ष प्राप्त करके दुबारा जन्म नहीं लेते। छः छः महीने का दक्षिणायन (धूम्रमार्ग) और उत्तरायण (अर्चिमार्ग)रहता है।मकर संक्रान्ति से सूर्य नारायण उत्तरायण में प्रवेश करते हैं इस प्रकार उत्तरायण में कलेवर त्याग करने वाले योगी सुगति को प्राप्त करते हैं मोक्ष को प्राप्त करते हैं।परम भागवत पितामह भीष्म जी ने पूरे अट्ठावन दिन शरतल्प (वाणों की शय्या) पर वेदना सहते हुए विताए और सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने के बाद उत्तरायण में माघ शुक्ल एकादशी को साक्षात् भगवान सर्वेश्वर श्रीकृष्ण का दर्शन करते हुए अपना भौतिक शरीर परित्याग किया। ऐसे उत्तरायण हुए सूर्य और उत्तरायण श्रीकृष्ण (उत्तरा के गर्भ में अश्वत्थामा के अस्त्र से गर्भस्थ बालक परीक्षित की रक्षार्थ उत्तरा के गर्भ में जाने के बाद सर्वेश्वर श्रीकृष्ण भी उत्तरायण ही हो गये)का दर्शन करते भीष्म पितामह ने भगवान का पुष्पिताग्रा छन्द में अद्भुत स्तवन किया…सो सूर्य देव के उत्तरायण आगमन मकर संक्रांति 15/1/2020की समस्त सनातनी हिन्दुओं को अनेकानेक शुभकामनाएं बधाइयां… श्री राधा सर्वेश्वराय नमः।
गीता पीठाचार्य
आचार्य डा अशोक विश्वमित्र
गीता पीठ गोवर्धन मथुरा उत्तर प्रदेश।

वन्दे ब्रज वसुंधराम्….. श्रीकृष्णपदांकित ब्रजभू में व्याप्त ब्रजरज का सेवन किए बिना और कृष्ण बल्लभा श्री किशोरी जू के ब्रह्मरूद्र नारद शुकादि ध्येय वंदित और श्रीकृष्ण लालित चरणकमलों की रेणु कणिकाओं का आराधन किए और रसोपासना महाभाव भावित हुए बिना कैसे श्यामसिंधु (श्रीश्यामाश्याम प्रीति रससमुद्र) में अवगाहन हो सकता है। अतः ब्रजवास, ब्रजरस श्री किशोरी जू की कृपा के बिना संभव नहीं है।ब्रज के लता कुंज, वृक्ष बल्लरी सब के सब अमलात्मा परमहंसशिरोमणि महापुरुष ऋषिवृंद ही है यह मेरा स्वयं का अनुभव है। लगभग पच्चीस साल पहले भदौरे गांव (भद्रवन) में मैं श्रीमद्भागवत कथा सेवा कर रहा था उस समय एक दिन दैवयोगात् मेरा गला बिल्कुल शत-प्रतिशत बैठ गया, आवाज़ बिल्कुल नहीं निकल रही थी, कथा में श्रीकृष्णाविर्भाव का वर्णन होना था सो शाम के समय मैंने एक पुराने पीलू के वृक्ष से प्रार्थना की-हे कृष्ण प्रीति भाजन महापुरुष! आज मैं भगवद् गुणानुवाद गायन में नितांत असमर्थ हो गया हूं आप मुझे भगवत्कथा वर्णन की सामर्थ्य प्रदान कर दें ताकि मैं परमाराध्य प्रभु सर्वेश्वर श्री कृष्ण की सरस कथा वर्णन कर सकूं। ऐसा कहकर मैंने एक पत्ता उनसे मांग कर खा लिया… आंखों में आंसू भरे हुए थे मैंने कुल पांच छः मिनट बाद एक श्लोक…अहो बकी यं स्तन कालकूटं…. जैसे ही उच्चारण किया… मेरी आवाज़ बिल्कुल शत-प्रतिशत सही और स्वर अति मधुर हो गया… ये मेरा स्वयं का अनुभव है और आज मेरा दृढ़ विश्वास है कि ये ब्रज के वृक्ष लता बल्लरियां सब के सब ऋषिगण हैं कृष्ण भावनाभावित भक्तियुक्त ब्रजरस में डूबे महापुरुष ही हैं और ब्रजरज सर्व पुरुषार्थ प्रदात्री है.. परिपूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ गुरुजनों संत महापुरुषों के वचनों को मानकर बिना बौद्धिक तर्क वितर्क श्री युगल नाम महामंत्र जप करते हुए ब्रजरज सेवन करें..
राधेकृष्ण राधेकृष्ण कृष्ण कृष्ण राधे राधे।
राधेश्याम राधेश्याम श्याम श्याम राधे राधे।।
…… श्री राधा सर्वेश्वराय नमः।
गीता पीठाचार्य
आचार्य डा अशोक विश्वमित्र
गीता पीठ गोवर्धन मथुरा उत्तर प्रदेश।

प्रोफेसर डा आर एम शर्मा जी के प्रश्नो के उत्तर–

श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय में श्रीधाम वृंदावन में भी नित्य निकुंजस्थ श्रीराधाकृष्ण की उपासना ही अभीष्ट बतायी है । इसके लिये सम्पूर्ण मंत्र साहित्य को दशको चिन्तन और अनुसन्धान करके अकाट्य सत्य ये है कि एकाक्षर से शताक्षर तक मंत्रो में से कुछ मंत्र ही है जो निकुंज प्रवेश में सहायक । 1-कृष्ण नाम 2-श्रीराधाकृष्ण नाम 3-अष्टादशाक्षर गोपाल मंत्रराज 4-युगल नाम महा मंत्र ( राधेकृष्ण राधेकृष्ण कृष्ण कृष्ण राधे राधे । राधेश्याम राधेश्याम श्याम श्याम ।।) । अन्य मंत्र पाठ भक्ति या अन्य अभीष्ट प्रदान करते हैं लेकिन निकुंज प्रवेश नही । मंत्र विधि चिंतन करते है । केवल कृष्ण नाम कर 12 अरब जाप के बाद निकुंज प्रवेश अवश्य । श्रीराधा कृष्ण नाम के भी 12 अरब नाम जाप । 18 अक्षर गोपाल मन्त्रराज के पुरश्चरण करने पडते हैं । पुरश्चरण में 18 लाख जाप 1,8 लाख तर्पण मार्जन , 18 हजार यज्ञ और 1800 ब्राह्मण भोजन । ये सब कुछ माह में ब्रह्मचर्य , एक समय भोजन , शौच या मूत्र विसर्जन या छींक या पाद या उबासी आने पर भी स्नान ,भूमि शयन , क्रोध लोभ दान लेना शाप या आशीर्वाद देना पूर्ण निषेध । क्या आज किसी की दम है इतना करने की । फिर एक नहीं कितने पुरश्चरण करने होन्गे प्रभू जाने । लेकिन युगल नाम महामन्त्र जाप का कोई नियम नहीं मात्र तन मन की पवित्रता विनम्रता गुरु निष्ठा ही पर्याप्त । अब तुलनात्मक एक अनुभव और हमने प पू बाबा श्रीशकदेवदास जी को देखा उन्होने 13 पुरश्चरण किये उनको हर समय साक्षात्कार था और वे मार्ग से भटके भी नही अन्यथा हमने पुरश्च र ण करने वाले च्युत होते देखे ।भक्ति या दर्शन के लिये पवित्रता विनम्रता युक्त जाप ही पर्याप्त ।

मटकू खसम हमारो —–

श्रीराधाकृष्ण विवाहोत्सव में हास्य —- हमारा विवाह मटकू उर्फ़ श्रीनिकुंज बिहारी लाल के साथ — प पू बाबा श्रीशुकदेव दास जी का आश्रम — श्रीठाकुर जी सजधज के बरात जाने को तैयार — हम भी अपने ठाकुर जी की अपरसी( अति पवित्र यानी सबसे दूर रहकर ) सेवा में किसी कार्य से उधर से निकले तो महंत जी मामा जी ने हमको बुलाया और चन्दन तिलक लगा वस्त्र उढा कर बोले की इस शुभ अवसर पर आपका पूजन भी आवश्यक है और पांच सौ रुपये भेंट किये फिर बोले की आपका विवाह भी मटकू से कराये देते है | हम भी भाव विभोर से होकर मटकू महाराज को गलबहियां देते बोले की अब मटकू हमारा खसम है ( चित्र संलग्न ) शाम को पद रचना की —–
मटकू खसम हमारो |
देव उठान तिथि दूलह मटकू , सखीजन व्याह संभारो ||
मटकू संग पूजे हमहू कौ , व्याह विनोदिनी कारौ |
मटकू संग व्याह की चर्चा , हमने हूँ स्वाकारौ ||
दे गलबहियां फोटो खिचवाई ,मटकू खसम हमारौ |
किंकरी त्रिभुवन पति की ह्वे के , जागो भाग हमारौ ||

वर पक्ष की ओर से दुलिहिनी श्रीराधारानी को गारी ( हास्यमय गाली ) —-

श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय के गौरव परम पूज्य बाबा श्रीशुकदेवदास जी के आश्रम में इस देवोत्थापन एकादशी को श्री राधाकृष्ण विवाह आयोजन — ठाकुर जी धौलपुर बसेडी के युवा भक्त सौरभ कौशिक के ठाकुर जी मटकू महाराज उर्फ़ श्रीनिकुंज बिहारी लाल —- सौरभ की मुझसे शिकायत कि विवाह पक्ष में सभी श्रीराधारानी की ओर बोल रहे हैं आप किधर है ? —- हमने सोचा हम तो किंकर है अर्थात अवसरानुसार सेवा करने वाले यानी श्रीठाकुरजी को सुख मिले कैसे भी — हमने कहा कि मटकू महाराज की ओर से हम है — पूज्य बाबा महाराज की समाधि के निकट बैठे बैठे रो रोकर लिखी दुलहिनी श्रीराधारानी को गारी —–
१-मंगल गारी नेग संभार |
ललित किशोरी ललित स्वामिनी , वृज की प्राण आधार ||
श्रीवृषभान बाबा घर आयीं , श्रीयमुना की धार |
मातु पिता कितहू कोऊ नाहीं , सबही मिले उधार ||
दुलहिनी करि मटकू अपनायी , श्रीशुका जू उर हार |
किंकरी चिर जीवो यही जोरी , पुनि पुनि जयति उचार ||
२-धनि धनि मटकू की दुलहिनिया |
वृज की गोरी है अति भोरी , मटकू हिये बसनिया ||
श्रीदामा की अतिहि लाडिली , सदा रहत उरझनिया |
मटकू नैनं की अति प्यारी , ताते तुम हुलासनिया ||
रस आनंद भरी यह जोरी , श्रीशुक सखी बलिजइया |
किंकरी जन सब बने बराती , अपने भाग सिराहियाँ ||

सखी भाव क्या है और कैसे प्राप्त हो ?

पाखंडी सखी भाव देने वाले | चाहे भगवान राम हौं या कृष्ण इनकी सेवा में पुरुष और स्त्री स्वरूप दो प्रकार के पार्षद रहते हैं | पुरुष सेवक पार्षद कहलाते हैं और स्त्री सेविकाए सखी कहलाती है.| पार्षद हौं या सखी दोनों के कुछ गुण निर्विवाद ध्यान देने योग्य हैं जैसे दोनो ही केवल भगवान का ही सुख चाहते हैं और वैसे ही सेवा कार्य करते हैं उनका अपना कोई सुख \ जीवन नहीं होता है | दूसरे वे कभी थकते नहीं और न ही किसी भी बहाने से सेवा से बचते हैं | तीसरे अन्य दोष तो कोई हो ही नहीं सकता | अब चिंतन करते हैं कि हमको सखी भाव कैसे प्राप्त हो ? तो हम सभी जीव ” विधि प्रपंच गुण अवगुण साना ” अनेको दोषों और गुण से युक्त हैं तो कुछ पाप पुण्य और धर्म अधर्म भी साथ | जहां इच्छाएं वासनाएं पाप अधर्म युक्त हम जीव को कैसे सखी भाव कैसे प्राप्त होगा ? और यही पाप वासना अधर्म ईर्ष्या राग द्वेष आदि दोष युक्त कोई गुरु सखी भाव कैसे दे सकता है ? हम को भी जवानी कुकर्मी पुलिस पंचायत द्वारा तडीपार जय नारायण पटेल उर्फ़ जय किशोर शरण ठग रहा था और मेरे साथ ही नहीं निम्बार्क पीठ महंत श्याम शरण श्रीकांत , गोबर्धन शरण जी को भी मरवाने के गोपनीय योजना बना रहा था वैसे ये सखी भाव का दाता बनता है | अब सखी भाव कैसे प्राप्त हो ? जीव जब नाम जाप करता है और पाप पुण्य धर्म अधर्म का चिंतन करके पाप वासना अधर्म से बचता है यानी पवित्रता से नाम जाप करता है तो उसे क्रमशः चार चीजें मिलती हैं — 1. नाम 2.रूप 3. लीला 4.धाम | हमारे नाम जाप और पवित्रता का स्तर ज्यौं ज्यौं बढ़ता है त्यों त्यों हमको सर्व प्रथम नाम में रस और अनन्यता प्राप्त होती है फिर भगवान के रूप के दर्शन होने लगते हैं फिर भगवान की लीलाओं के दर्शन और फिर लीलाओं में प्रवेश भी | यही स्तर सखी भाव प्राप्ति का होता है | वृज में जो लोग सखी भाव देने की दूकान चला रहे है वे नम्बर एक के ठग हैं आडंबरी हैं | मैंने ये सब कुछ अपने 45 साल के अनुभव से संक्षेप में लिखा | सोवियत संघ में बैठे रशियन निम्बार्की को वाट्स ऐप लाइव यही कहा |हमारे गुरुदेव जगद्गुरु निम्बार्काचार्य श्रीश्रीजी महाराज और स्वनाम धन्य महापुरुष बाबा श्रीशुकदेव दास जी महाराज को इस विषय पर चर्चा करना स्वीकार नहीं था | सखी नाम को लेकर श्री श्रीजी महाराज की एक घटना बताएँगे अगले लेख में | हमको भयानक ( कमरा गूँज गया ) डाट पडी

आचार्य डा अशोक विश्वमित्र

महान योद्धा यदुकुल वीर महाराजा सूरजमल भी महाराज वज्रनाभ जी की गुरु परंपरा के अनुसार निम्बार्क सम्प्रदाय में ही दीक्षित हुए… संलग्न चित्र को देखकर पुष्टि कर लें। करौली के जादौन राजवंश की ही शाखा है(वर्तमान में गौरवशाली योद्धा जाट जाति में सम्मिलित) भरतपुर का गौरवशाली राजवंश। महाराज वज्रनाभ जी की वंश परम्परा में करौली का राजवंश है।उसी गौरवशाली यदुवंशी राजकुल के राजपुरुष और साधारण पुरुष भी सभी निम्बार्क सम्प्रदाय में ही दीक्षित होते रहे हैं।..श्री राधा सर्वेश्वराय नमः
आचार्य डा अशोक विश्वमित्र
भगवद् गीता अनुसंधान एवं प्रचार प्रसार ट्रस्ट रजि गोवर्धन।

जगद्गुरु निम्बार्क भगवान के शिष्य महाराज परीक्षित और वज्रनाभ जी

आचार्य डा अशोक विश्वमित्र अपने #32 साल के शासन काल में राजर्षि परीक्षित जी ने महाभारत युद्ध के बाद खण्डहर बने भारत भूमि के यशोमंदिर की कीर्ति पताका को दिग-दिगंत में फहराने का भरपूर प्रयास किया। इंद्रप्रस्थ के सिंहासन पर यदुकुल भूषण श्री वज्रनाभ जी प्रतिपल सम्राट परीक्षित के साथ भारत भूमि के समृद्ध अतीत को व्यवस्थित करने में ही लगे रहते थे। इस समय दक्षिण भारत में भी यदुवंशी राजा थे इनमें से कुछ तो विपरीत हो रहे थे सो उन्हें शमन करने के लिए युवराज जन्मेजय और इंद्रप्रस्थ/मथुरा नरेश बज्रनाभ जी गये और इस अभियान में दोनों ही के प्रचण्ड पराक्रम से दक्षिण के राज्यों के ध्वज अवनत हुए। इस विजय अभियान से लौट कर महाराज वज्रनाभ और हस्तिनापुर के युवराज जन्मेजय मथुरा आए और यहां श्री गोवर्धन गिरिराज जी की तलहटी में श्री निम्बार्काचार्य जी के पादपद्मों में प्रणाम करने आए। दोनों ही श्री सुदर्शन चक्रावतार श्रीभगवन्निम्बार्काचार्य जी के ही शिष्य थे। गुरुदेव की आज्ञानुसार महाराज वज्रनाभ और युवराज जन्मेजय ने आराध्य प्रभु श्रीकृष्ण के भी आराध्य श्री गिरिराज महाप्रभु जी की परिक्रमा लगाई, ब्रजवासियों के द्वारा प्रतिपादित गिरिराज परिक्रमा की परंपरा को पुनः श्री निम्बार्काचार्य महाप्रभु जी के आदेश पर यदुकुल नरेश वज्रनाभ जी और कुरुवंशियों के कुलदीपक युवराज जन्मेजय ने आरंभ किया। युधिष्ठिर संवत 49में लगभग एक शताब्दी बाद में श्री गोवर्धन जी की परिक्रमा दोबारा शुरू हो गई। तब से लेकर अब तक निरंतर श्री गिरिराज जी की परिक्रमा चल रही है महाराज वज्रनाभ और सम्राट परीक्षित के समन्वित प्रयासों से श्रीकृष्ण की लीलाओं से सम्बंधित स्थलों तीर्थों, कुण्ड और तत्सम्बन्धी देवालयों और श्रीकृष्ण के श्रीविग्रहों के निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो ही चुकी थी। सम्राट परीक्षित स्वयं परम कृष्णभक्त थे और गुरु निर्दिष्ट अष्टादशाक्षर गोपाल मंत्र के निष्ठावान जापक थे उन्होंने ब्रज के पुनर्निर्माण का दायित्व युवराज जन्मेजय और महाराज वज्रनाभ जी को ही दे रखा था किन्तु समय समय पर वे ब्रजभूमि की रज अपने शीर्ष पर चढ़ाने आते ही रहते थे। कुसुम सरोवर पर अनेकों बार दिव्य सत्संग और संकीर्तन के आयोजन सम्राट परीक्षित और महाराज वज्रनाभ के द्वारा आयोजित होते रहे। सर्वेश्वर प्रभु श्री कृष्ण के चिंतन और उनके प्रिय ब्रजमंडल के पुनरुद्धार में ही राजर्षि परीक्षित का अधिक समय व्यतीत हुआ।वे राजर्षि परीक्षित आज ही के दिन भाद्रपद शुक्ल नवमी तिथि रविवार को परमहंसशिरोमणि श्री शुकदेव जी महाराज के श्रीमुख से परमहंससंहिता श्रीकृष्ण के शब्दावतार श्रीमद् भागवत जी की कथा श्रवण के मुख्य अधिकारी हुए।इसी दिन श्रीमद्भागवत का लोक में प्रकाश हुआ इससे यह तिथि भाद्रपद शुक्ल नवमी #भागवत_जयंती के नाम से प्रसिद्ध हो गई…
श्री राधा सर्वेश्वराय नमः।
आचार्य डा अशोक विश्वमित्र
भगवद् गीता अनुसंधान एवं प्रचार प्रसार ट्रस्ट रजि गोवर्धन।

बरसाना, श्रीबिहारी जी और श्रीराधाकृपा कटाक्ष से भी अधिक \ एवं इनकी कृपा से प्राप्त —

लगभग 12 वर्ष पूर्व की बात है कि मथुरा के मूल निवासी दिल्ली वासी एकाउंटेंट एवं गायक हरी शर्मा जी समय लेकर एक वयोवृद्ध कर्मकांडी पंडित जी को लेकर मिलाने आये | मिलाने का कारण पंडित जी की समस्या थी कि वो अनेको अनुष्ठान कर चुके , प्रतिमाह बिहारी जी के दर्शन भी करने जाते हैं , प्रतिदिन श्रीराधाकृपा कटाक्ष का पाठ भी करते हैं लेकिन मन संतुष्ट नहीं है कुछ छूट रहा है ऐसा लगता है और अनेको महा पुरुषो से मिलने और उपाय करने पर भी आत्मा की प्यास बुझ नहीं रही है | परेशान होकर हरिजी को बताया तो ये आपके पास ले आये | मैं पंडित जी की आयु , विद्वत्ता से परिचित था अतः कुछ संकोच था लेकिन मैंने धीरे धीरे बहुत मन्त्र तंत्र कृपा क्रियाओं की चर्चा की फिर श्रीयुगल नाम महा मन्त्र महिमा बतायी | वे इस मन्त्र को प्राप्त करने और श्रीराम चरित मानस पर हाथ रखा कर मृत्यु पर्यंत जाप के लिए वचन बढ हो गए तो मैंने ” श्रीयुगल नाम महा मन्त्र महिमामृत ” पुस्तक उनको दी | पंडित जी पुस्तक को ले गए बाद में जब भी मिले तो सीधे हमारे चरणों में गिरते कि आपने जो दिया वह सत्य ही प्रमोत्कृष्ट है और अब मैं भी उसी में लगा हूँ | किसी सन्दर्भ में यह घटना याद आ गयी

वृज 84 कोस यात्रा के प्रवर्तक —

श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय के परम त्यागी तपस्वी संत श्रीनागा जी महाराज — आप वृज में कामा क्षेत्र में विराजते थे आज भी वही आपकी समाधि है | श्रीनागा जी प्रातः कामवन से नंदगांव राधा कुंड वृन्दावन गोकुल मथुरा गोबर्धन बरसाना होते हुए शाम को कामवन वापिस आ जाते थे | यही परम्परा बाद में अन्य संतो भक्तो आचार्यो ने अपनाई | एक दिन जब श्रीनागा जी वृज 84 कोस यात्रा में थे तो घोर गर्मी में प्यास से व्याकुल हो उठे | उसी रात को श्रीराधाकृष्ण ने श्रीनागा जी को स्वप्न में कहा कि आज से आप को जल नहीं वृज गोपिया दूध छाछ पिलायेंगी | श्रीयुगल सरकार के आदेश का परिणाम हुआ कि मार्ग में वृज गोपिया श्रीनागा जी की प्रतीक्षा करती थी कि बाबा इस मार्ग से आयेंगे तो हम उनको दूध छाछ पिलायेंगे | अन्य घटना दूसरे अंक में

श्री वृन्दावन के ठाकुरों के स्वरूप का आनंदमय विश्लेषण —-

श्रीधाम वृन्दावन में श्रीबांके बिहारी जी , श्रीराधाबल्लभ लाल जी , श्रीराधा रमण लाल जी और श्रीजी की कुञ्ज रेतिया बाजार में विराजमान श्रीआनंद मनोहर वृन्दावन चंद्रजू | श्रीराधाबल्लभ लाल जी का स्वरूप 6-7 वर्ष के भोले बालक की तरह तो श्रीराधारमण लाल २ वर्ष के चंचल मुस्कुराते बालक की तरह और श्री आनंद मनोहर वृन्दावन चन्द्र जू 14-15 साल के किशोर युगल जिसकी अदा भी निराली | अपने अपने भाव लेकिन मनोहर रसमय स्वरूप | मैंने तो बहुत आनंद लिया है इन के दर्शन का आप भी लीजिये | श्री आनंद मनोहर वृन्दावन चन्द्र जू के पुजारियों की पांच पीढी यानी 50 साल में जो भी पुजारी रहे सभी भजनान्दी तपस्वी वास्तव में विरक्त आज भी

भक्ति और पूजा में क्या अंतर —- किसी भी देवी देवता के पूजन चाहे वो सामान्य हो या पंचोपचार \ षोडशोपचार जिसमें अर्ध्य आचमन स्नान गंध पुष्प नैवेद्य आरती दक्षिणा नमन याचना आदि को पूजा कहते हैं | पूजा थोड़ी देर की ही होती है और स्वार्थमय भी | इसके विपरीत भक्ति में समय की बाध्यता नहीं , स्वार्थ नहीं , समर्पण और प्रेम होता है भले ही भक्ति में भी स्नान भोग आदि हो बल्कि इष्ट को शयन भी भी कराया जाता है जब कि पूजा में नहीं | पूजा बाद में क्लेशकारक भी हो सकती है लेकिन भक्ति कभी नहीं | पूजा का सुफल मनोरथ पूर्ती या पापकर्म से नष्ट हो सकता है लेकिन भक्ति का फल कभी नहीं नष्ट होता ( ऐसी ही जिज्ञासा की गयी जिस पर लघु मति से मेरे द्वारा त्वरित चिंतन निवेदन किया ) इसलिए समय समय पर पूजा भी उचित लेकिन दिनरात साल भर भक्ति ही उचित जो अगले जन्म में भी साथ जायेगी लेकिन पूजा कदापि नहीं

सखीभाव पर श्री श्रीजी महाराज का एक संस्मरण —

सद्भावी और पाखंडी दोनों को –श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय के सर्वविध सर्वमान्य गौरव , सर्वविध अनुकरणीय दिव्य सिद्ध संत प पू बाबा श्रीशुकदेव दास जी महाराज का जीवन परिचय ” श्रीशुक प्रकाश ” लिख रहे थे | मैं दो कमरो के फ़्लैट में अकेला ही रहता हूँ अतः एकांत में खूब रो रो कर एक स्तुति लिखी गयी ” वन्दे श्रीशुक गुरु सखी चरणम् ” इसी स्तुति में मुझे सखी नाम प्राप्त हुआ जब की मैं तो किंकर नाम से काव्य करता था | मुझे आश्चर्य हुआ की ये नाम की छाप कैसे आगई खैर उस नाम पर पूज्य बाबा महाराज की हस्तलिखित स्वीकृति मुझे मिल गयी लेकिन मैंने उसे छिपा लिया और किंकर की बजाय किंकरी छाप से ही काव्य लेखन जारी रखा | एक दिन श्रीगुरुदेव श्री श्रीजी महाराज से मैंने फोन पर उनका सखी नाम पूंछा तो महाराजश्री मुकर गए और बोले कि अरे हमारे भाग्य में ये सब कहाँ ? ये तो बहुत दुर्लभ चीजं है ?? मुझे हंसी आयी और मैंने भी मन ही मन चुनौती कर दी कि यदि मैं आपका लाडला दुलारा दास हूँ तो इस सत्य तथ्य को जान कर रहूँगा सहज ही | कुछ माह बाद मैं आचार्य पीठ गया | आचार्यश्री महल ( गुरुदेव का निवास ) में अकेला बैठा था ( मुझे कभी किसी ने रोका टोका नहीं जो दूसरो को संभव ही नहीं ) अपने स्वभावानुसार वहा रखे कुछ कागजो को पढने लगा इतने में ही एक फोल्डर में कुछ संस्कृत के श्लोक और आचार्यो के सखी नाम लिखे दिखे | मैंने वो फोल्डर से कागज़ निकाले और 48 वें आचार्य का सखी नाम भी ढूंढा तो मिल गया | मैं मन ही मन हँसा और वो फोल्डर श्री गुरुदेव के सामने पढ़ने को रख दिया | श्रीगुरुदेव ने जो देखा तो एक दम बहुत जोर से मुझे डांटा की हमारे कागजो को मत छुआ करो | दांट इतने उच्च स्वर में थी की दो कमरे दूर भी सुन सकते थे जबकि श्रीगुरुदेव तो बहुत मधुर और मंद स्वर से ही बोलते है | मैं तुरंत वहां से प्रणाम करके बाहर आगया और अपने कक्ष में आकर हंसने और रोने लगा कि मैंने चुनौती दी थी कि सत्य मुझसे छिपा नहीं पाओगे !! इतने मैं ही श्रीगुरुदेव ने अपने सेवक के द्वारा दो हाथो में भर प्रसाद भेजा मेरे कक्ष में | मैं और भी हंसने और रोने लगा , देखो डाटा था न सो अब मनाने को तुरंत ही प्रसाद भेजा है | ये नौटंकी सखीभाव वाले न सखी भाव वाले है न साधक ( भजन करने वाले ) और न चरित्रवान और न ही चरित्रवान भजनानन्दी संतो के शिष्य | श्रीशुक प्रकाश का विमोचन करते श्रीगुरुदेव

सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज का खंडन —

लगभग दो वर्ष पूर्व प्रात तीन बजे उठे और लघुशंका ( पेशाब ) को गए | नींद भयंकर थी लघुशंका में भी | तभी एक स्वर सुनायी दिया ” सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ” मेरी नींद गायब और मैं आश्चर्य चकित कि कौन बोल रहे हैं | ध्यान रहे कि मैं दो कमरे के फ़्लैट में अकेला ही रहता हूँ | फिर स्वर सुनायी दिया कि क्या धर्म का परित्याग करने वाले को शरणागति प्राप्त होती है ? अब तो मैं पूर्ण चैतन्य और आश्चर्यमय | मैं लघुशंका के बाद हाथ धो रहा था तो फिर सुनायी दिया यदि धर्म का परित्याग करने वाले पर भी कृपा तो दुर्योधन आदि को क्यों मरवा दिया रावण भी क्यां मरवा दिया ? पूंछो विद्वानों से | मैं अब बहुत आश्चर्यमय था किन्तु मैं ने झुंझलाकर कहा कि मेरे प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते अतः आप ही बताइये | बहुत सुन्दर और सरलतम उत्तर मिला | विद्वान लोग व्यर्थ में चीजो को जटिल बनाते रहते हैं | कुल मिलाकर बात यही कि धर्म का परित्याग करने वाले को शरणागति नहीं मिलती | भारत वर्ष की दुर्दशा इसी धर्म रहित शरणागति / भक्ति का परिणाम

सखी भाव क्या है और कैसे प्राप्त हो ?

पाखंडी सखी भाव देने वाले | चाहे भगवान राम हौं या कृष्ण इनकी सेवा में पुरुष और स्त्री स्वरूप दो प्रकार के पार्षद रहते हैं | पुरुष सेवक पार्षद कहलाते हैं और स्त्री सेविकाए सखी कहलाती है.| पार्षद हौं या सखी दोनों के कुछ गुण निर्विवाद ध्यान देने योग्य हैं जैसे दोनो ही केवल भगवान का ही सुख चाहते हैं और वैसे ही सेवा कार्य करते हैं उनका अपना कोई सुख \ जीवन नहीं होता है | दूसरे वे कभी थकते नहीं और न ही किसी भी बहाने से सेवा से बचते हैं | तीसरे अन्य दोष तो कोई हो ही नहीं सकता | अब चिंतन करते हैं कि हमको सखी भाव कैसे प्राप्त हो ? तो हम सभी जीव ” विधि प्रपंच गुण अवगुण साना ” अनेको दोषों और गुण से युक्त हैं तो कुछ पाप पुण्य और धर्म अधर्म भी साथ | जहां इच्छाएं वासनाएं पाप अधर्म युक्त हम जीव को कैसे सखी भाव कैसे प्राप्त होगा ? और यही पाप वासना अधर्म ईर्ष्या राग द्वेष आदि दोष युक्त कोई गुरु सखी भाव कैसे दे सकता है ? हम को भी जवानी कुकर्मी पुलिस पंचायत द्वारा तडीपार जय नारायण पटेल उर्फ़ जय किशोर शरण ठग रहा था और मेरे साथ ही नहीं निम्बार्क पीठ महंत श्याम शरण श्रीकांत , गोबर्धन शरण जी को भी मरवाने के गोपनीय योजना बना रहा था वैसे ये सखी भाव का दाता बनता है | अब सखी भाव कैसे प्राप्त हो ? जीव जब नाम जाप करता है और पाप पुण्य धर्म अधर्म का चिंतन करके पाप वासना अधर्म से बचता है यानी पवित्रता से नाम जाप करता है तो उसे क्रमशः चार चीजें मिलती हैं — 1. नाम 2.रूप 3. लीला 4.धाम | हमारे नाम जाप और पवित्रता का स्तर ज्यौं ज्यौं बढ़ता है त्यों त्यों हमको सर्व प्रथम नाम में रस और अनन्यता प्राप्त होती है फिर भगवान के रूप के दर्शन होने लगते हैं फिर भगवान की लीलाओं के दर्शन और फिर लीलाओं में प्रवेश भी | यही स्तर सखी भाव प्राप्ति का होता है | वृज में जो लोग सखी भाव देने की दूकान चला रहे है वे नम्बर एक के ठग हैं आडंबरी हैं | मैंने ये सब कुछ अपने 45 साल के अनुभव से संक्षेप में लिखा | सोवियत संघ में बैठे रशियन निम्बार्की को वाट्स ऐप लाइव यही कहा |हमारे गुरुदेव जगद्गुरु निम्बार्काचार्य श्रीश्रीजी महाराज और स्वनाम धन्य महापुरुष बाबा श्रीशुकदेव दास जी महाराज को इस विषय पर चर्चा करना स्वीकार नहीं था | सखी नाम को लेकर श्री श्रीजी महाराज की एक घटना बताएँगे अगले लेख में | हमको भयानक ( कमरा गूँज गया ) डाट पडी

कृष्णावतार द्वारा संस्थापित धर्म का विलोप और पुनर्संस्थापन—

द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना — महाभारत के 36 वर्ष बाद ही कलियुग का प्रारम्भ और धर्म का पूर्ण विलोप — युगधर्म मानकर श्रीसनकादिक भगवान आदि ऋषि मुनि बदरीक्षेत्र में तपस्यारत —-महाराज परीक्षित भी हारे —- यानी ऋषि मुनि राजा सभी हारे लेकिन देवर्षि नारद जी ने प्रयास नहीं छोड़े धर्म संस्थापन के — अन्त में देवर्षि भी थके तो गुरु देव श्रीसनकादिक ऋषि के शरणागत हो दुःख सुनाया — तब श्रीसनकादिक ऋषि की प्रेरणा से देवर्षि वर्य सीधे गोलोकधामस्थ श्रीवृंदावन धाम में श्रीराधाकृष्ण के सम्मुख प्रकट हुए और इस ब्रह्माण्ड में अभी श्रीयुगल के अवतार और धर्म संस्थापन के बाद अब कलियुग द्वारा धर्म के लोप की सूचना दी तब श्रीराधारानी ने अपनी प्रधान सखी श्रीरंगदेवी जी जो वृन्दावन से बाहर चक्रराज सुदर्शन हैं को आज्ञा दी कि भूमंडल पर अवतार लेकर पुनः वैदिक भक्ति की स्थापना और प्रसार करिए — 51 14 वर्ष पूर्व आज कार्तिक पूर्णिमा को गोधूली वेला में गोदावरी के तट पर देवर्षि वर्य के शिष्य और मित्र श्रीअरुण ऋषि और माता जयंति जी के यहाँ श्रीसुदर्शन चक्रराज ने अवतार लिया — कलियुग के प्रथम आचार्य श्रीनिम्ब़ार्काचार्य भगवान के जयंती महोत्सव पर सभी को मंगल बधाई — आज श्रीनिम्बार्काचार्य जी की बधाई भूमंडल पर ही नहीं लोक लोकांतर और नित्य निकुंज में भी बधाई गायन होता है —-नित्य निकुंज में श्रीनिम्बार्क भगवान की बधाई
पद –श्री वृन्दावन धूम मची है , कातिक पून्यौ आयी है ।
श्री रंग देवी प्रकट भयी भू , वैदिक भक्ति बढायी है ॥
श्री निम्बार्काचार्य रूप धरि , पराभक्ति सुख दायी है ।
अष्ट रूप धरि प्रभु सेवा में , युगल प्रेम मन भायी है ॥
रंग रंगीली रंग देवी जू , युगल चरन रस दायी है ।
पूजौ आज इन्हें सब मिलि कै , किंकरि वारि बधायी है ॥
पद—रंग देवी जू तुम अति नीकी ।
श्री सर्वेश्वर राधा माधव , निकट बुलाय कही निज जीकी ॥
श्यामा जू कर गहि निज कर में , दियो पान बीडा मुख नीकी ।
मोहन तिलक कियो रोली कौ , दयी प्रसादि ओढनी जीकी ॥
सहचरि सब सिंगार कियो अति , कातिक पून्यो भू अति नीकी ।
पराभक्ति अवनी स्थापित , बनी सेतु जीवन नित जीकी ॥
धन्य धन्य निम्बार्क स्वरूपा , भक्ति विराग ज्ञान गुन नीकी ।
प्रकट आचरन करि उपदेस्यो , किंकरि जन बलिहारी जीकी ॥
पद—श्री सर्वेश्वर राधा माधव , चरनन सिर धरि मांगत हौं । नैनन सौं लखि रूप माधुरी , स्वाति सलिल सम चातक हौं ॥ नाम जाप निसिदिन तत्पर व्है , कथा श्रवण रस पागत हौं । किंकरि भाव रहूँ सेवा में , अष्टयाम सुख याचक हौं ॥ –श्री श्रीजी महाराज निकुंज सेवामृत–डा राधा कान्त वत्स किंकरी

भक्ति और पूजा में क्या अंतर —-

किसी भी देवी देवता के पूजन चाहे वो सामान्य हो या पंचोपचार \ षोडशोपचार जिसमें अर्ध्य आचमन स्नान गंध पुष्प नैवेद्य आरती दक्षिणा नमन याचना आदि को पूजा कहते हैं | पूजा थोड़ी देर की ही होती है और स्वार्थमय भी | इसके विपरीत भक्ति में समय की बाध्यता नहीं , स्वार्थ नहीं , समर्पण और प्रेम होता है भले ही भक्ति में भी स्नान भोग आदि हो बल्कि इष्ट को शयन भी भी कराया जाता है जब कि पूजा में नहीं | पूजा बाद में क्लेशकारक भी हो सकती है लेकिन भक्ति कभी नहीं | पूजा का सुफल मनोरथ पूर्ती या पापकर्म से नष्ट हो सकता है लेकिन भक्ति का फल कभी नहीं नष्ट होता ( ऐसी ही जिज्ञासा की गयी जिस पर लघु मति से मेरे द्वारा त्वरित चिंतन निवेदन किया ) इसलिए समय समय पर पूजा भी उचित लेकिन दिनरात साल भर भक्ति ही उचित जो अगले जन्म में भी साथ जायेगी लेकिन पूजा कदापि नहीं

हमारे आदर्श —उपाधि रहित —-

संगीताचार्य भागवताचार्य सिद्ध ही नहीं महासिद्ध संत परम पूज्य बाबा श्रीशुकदेवदास जी महाराज जिन्होंने लाखो लोगो को जीवनदान दिया जिनका संगीत सुनने वन का राजा सिंह और पंडित जसराज जी भी आते थे कुछ भी चमत्कार करने में समर्थ और 102 वर्ष की आयु में शरीर छोड़ा दूसरी ओर वृन्दावन के यथा नाम तथा गुण महापुरुष संत परम पूज्य श्रीसुदामादास जी महाराज हजारो लोगो को प्रतिदिन भोजन प्रसादी कराने वाले विरक्तो में प्रतिष्ठित लगभग 100 वर्ष की आयु में शरीर छोड़ा | दोनों के जीवन की तीन विशेषताएं —1. दोनों कठोर भजनानंदी 2. दोनों ही रहन सहन में अति सादगी वाले 3. चमत्कारी और प्रतिष्ठित होते हुए भी कभी अपने नाम के आगे कोई उपाधि नहीं लगायी केवल सुदामा दास और शुकदेवदास ही लिखा —— कभी महंत शब्द भी नहीं लगाया , जगद्गुरु आदि शब्द की बात तो कोसो दूर — हम भी ऐसे संतो की चरण रज में कीट बन के रहे और आज भी हम छोटे से कीड़े की तरह ही 24 घंटे पड़े रहते हैं इनकी श्रीचरण रज में — आज के धूर्त कथा वाचक जगद्गुरु , वैष्णवाचार्य आदि आदि न जाने कितनी उपाधियाँ स्वयं ही लगा लेते है — निष्कर्ष — जिनके पास भक्ति और शक्ति होती है वे पद और उपाधि रहित ही चमकते है — इनके आगे बड़े बड़े जगद्गुरु भी नत मस्तक देखे हमने

हमारे आदर्श

भयंकर शीत में भी कभी मौजे नहीं पहने जगद्गुरु निम्बार्काचार्य श्री श्रीजी महाराज (मेरे गुरुदेव-चित्र संलग्न) ने – हमारे यहाँ मन्दिर में मोजा पहनना भी वर्जित है । भयंकर शीत में भी श्रीगुरुदेव ने जीवन में कभी नहीँ पहने । मेरे पिताजी महाराजश्री के चिकित्सक और अति निकटस्थ थे । शीतकाल में मेरे पिताजी को ठंड बहुत लगती थी इसकारण कपडे अधिक पहनते थे और दो दो गर्म मोजा भी । जब शीतकाल में पिताजी सायंकालीन संकीर्तन में अनुपस्थित होते तो गुरुदेव ने टोक दिया । पिताजी ने कहा कि मन्दिर में मोजा पहनना निषेध है और मुझे ठंड लगती है बैठा नहीं जाता फिर भी महाराजश्री ने पिताजी को मन्दिर में मोजा पहन कर आने की छूट नहीं दी । विशेष यह मेरे पिताजी गुरुदेव से आयु में अधिक थे । ये परम्पराएं आज दिखती नहीं है तो फिर परम्परा नाम ही कहाॅ रहा । चारो ओर सुख की स्वेच्छाचारिता है ।इस समय भयंकर शीत में श्रीगुरुदेव के इस नियम पालन की रह रह कर याद आती है ।

श्रीमोहिनी एकादशी – श्रीत्रिस्पर्शा महाद्वादशी
वैशाख शुक्ला एकादशी, सोमवार 4 मई 2020

उन्मीलिनी, वञ्जुलिनी, त्रिस्पर्शा, पक्षवर्धिनी, जया, विजया, जयन्ती और पापनाशिनी
ये आठ महाद्वादशियां पुण्यप्रद हैं और सम्पूर्ण पापों को हरण करने वाली हैं । इन आठों में से कोई सा भी योग उपस्थित होने पर शुद्धा एकादशी को भी त्यागकर उस महाद्वादशी के व्रत को करना चाहिये।
एकादशी द्वादशी चरात्रिशेषे त्रयोदशी ।
त्रिस्पर्शा नाम सा ज्ञेया महापातकनाशिनी ।।

प्रातःकाल एकादशी हो फिर द्वादशी का क्षय होकर रात्रि शेष में त्रयोदशी हो, तो वह महाद्वादशी ‘त्रिस्पर्शा’कहलाती है।
इस दिन व्रत करने से ब्रह्महत्या का पाप भी नष्ट हो जाता है। ध्यान धारणा वर्जित कामी विषयी व्यक्तियों के पापों का शमन त्रिस्पर्शा के व्रत से हो जाता है।

भगवान् का श्रीगुरुप्रदत्त मन्त्रों से पूजन अर्चन करें । तुलसी दल तत्कालीन पुष्प वस्त्र अर्पण करें, छत्र नैवध्य विविध फल अर्पण करे। फिर भगवान् की निम्न मन्त्रों से अंग पूजा करे –
श्रीदामोदराय नमः से चरणों की
श्रीमाधवाय नमः से घुटनों की
श्रीकामपतये नमः से गुह्यस्थल की
श्रीवामनरूपिणे नमः से कटि की
श्रीपद्मनाभाय नमः से नाभि की
श्रीविश्वरूपिणे नमः से उदर की
श्रीज्ञानगम्याय नमः से ह्रदय की
श्रीकण्ठसंज्ञके नमः से कण्ठ की
श्रीसहस्रबाहवे नमः से बाहु की
श्रीयोगनायके नमः से नेत्रों की
श्रीउरुगाय नमः से ललाट की
श्रीसहस्रशिरसे नमः से मस्तक की तथा
श्रीकृष्णाय नमः से सर्वाङ्ग की पूजन करें

अर्घ्य देकर धूप दीप नैवैद्य अर्पित कर आरती उतारे। फिर श्रीगुरुदेव की पूजन करे। इस प्रकार श्रीहरिगुरु पूजन के अनन्तर रात्रि में जागरण करे, गान वादन करे। रात्रि में भगवान् की अर्घ्य प्रदान पूर्वक वंदन करके दूसरे दिन प्रातः स्नानादि के अनन्तर भगवत पूजन करके वैष्णवों सहित पारणा करें।

Pujypad gurudev bhagvan ki gurubani…

ब्राम्हण का एकादश परिचय ….

1 गोत्र …..

गोत्र का अर्थ है कि वह कौन से ऋषिकुल का है या उसका जन्म किस ऋषिकुल से सम्बन्धित है । किसी व्यक्ति की वंश-परम्परा जहां से प्रारम्भ होती है, उस वंश का गोत्र भी वहीं से प्रचलित होता गया है।

हम सभी जानते हें की हम किसी न किसी ऋषि की ही संतान है, इस प्रकार से जो जिस ऋषि से प्रारम्भ हुआ वह उस ऋषि का वंशज कहा गया ।

विश्‍वामित्रो जमदग्निर्भरद्वाजोऽथ गौतम:।
अत्रिवर्सष्ठि: कश्यपइत्येतेसप्तर्षय:॥
सप्तानामृषी-णामगस्त्याष्टमानां
यदपत्यं तदोत्रामित्युच्यते॥

विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप- इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्त्य की संतान गोत्र कहलाती है।

इस तरह आठ ऋषियों की वंश-परम्परा में जितने ऋषि (वेदमन्त्र द्रष्टा) आ गए वे सभी गोत्र कहलाते हैं। और आजकल ब्राह्मणों में जितने गोत्र मिलते हैं वह उन्हीं के अन्तर्गत है।

सिर्फ भृगु, अंगिरा के वंशवाले ही उनके सिवाय और हैं जिन ऋषियों के नाम से भी गोत्र व्यवहार होता है।

इस प्रकार कुल दस ऋषि मूल में है। इस प्रकार देखा जाता है कि इन दसों के वंशज ऋषि लाखों हो गए होंगे और उतने ही गोत्र भी होने चाहिए।

गोत्र शब्द एक अर्थ में गो अर्थात् पृथ्वी का पर्याय भी है ओर ‘त्र’ का अर्थ रक्षा करने वाला भी हे। यहाँ गोत्र का अर्थ पृथ्वी की रक्षा करें वाले ऋषि से ही है।

गो शब्द इन्द्रियों का वाचक भी है, ऋषि- मुनि अपनी इन्द्रियों को वश में कर अन्य प्रजाजनों का मार्ग दर्शन करते थे, इसलिए वे गोत्रकारक कहलाए।

ऋषियों के गुरुकुल में जो शिष्य शिक्षा प्राप्त कर जहा कहीं भी जाते थे , वे अपने गुरु या आश्रम प्रमुख ऋषि का नाम बतलाते थे, जो बाद में उनके वंशधरो में स्वयं को उनके वही गोत्र कहने की परम्परा आविर्भूत हुई । जाति की तरह गोत्रों का भी अपना महत्‍व है ।।

2 -प्रवर …..

प्रवर का अर्थ हे ‘श्रेष्ठ” । अपनी कुल परम्परा के पूर्वजों एवं महान ऋषियों को प्रवर कहते हें ।

अपने कर्मो द्वारा ऋषिकुल में प्राप्‍त की गई श्रेष्‍ठता के अनुसार उन गोत्र प्रवर्तक मूल ऋषि के बाद होने वाले व्यक्ति, जो महान हो गए वे उस गोत्र के प्रवर कहलाते हें।

इसका अर्थ है कि आपके कुल में आपके गोत्रप्रवर्त्तक मूल ऋषि के अनन्तर तीन अथवा पाँच आदि अन्य ऋषि भी विशेष महान हुए थे l

प्रवर का अर्थ हुआ कि उन मन्त्रद्रष्टा ऋषियों में जो श्रेष्ठ हो।

प्रवर का एक और भी अर्थ है। ..

यज्ञ के समय अधवर्यु या होता के द्वारा ऋषियों का नाम ले कर अग्नि की प्रार्थना की जाती है। उस प्रार्थना का अभिप्राय यह है कि जैसे अमुक-अमुक ऋषि लोग बड़े ही प्रतापी और योग्य थे। अतएव उनके हवन को देवताओं ने स्वीकार किया। उसी प्रकार, हे अग्निदेव, यह यजमान भी उन्हीं का वंशज होने के नाते हवन करने योग्य है।

इस प्रकार जिन ऋषियों का नाम लिया जाता है वही प्रवर कहलाते हैं। यह प्रवर किसी गोत्र के एक, किसी के दो, किसी के तीन और किसी के पाँच तक होते हैं न तो चार प्रवर किसी गोत्र के होते हैं और न पाँच से अधिक।

यही परम्परा चली आती हैं। ऐसा ही आपस्तंब आदि का वचन लिखा है। हाँ, यह अवश्य है कि किसी ऋषि के मत से सभी गोत्रों के तीन प्रवर होते हैं। जैसा कि :

त्रीन्वृणीते मंत्राकृतोवृणीते॥ 7॥

अथैकेषामेकं वृणीते द्वौवृणीते त्रीन्वृणीते न चतुरोवृणीते न
पंचातिवृणीते॥ 8॥

3 -वेद …..

वेदों का साक्षात्कार ऋषियों ने सभी के लाभ के लिए किया है , इनको सुनकर याद किया जाता है , इन वेदों के उपदेशक गोत्रकार ऋषियों के जिस भाग का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार प्रसार, आदि किया, उसकी रक्षा का भार उसकी संतान पर पड़ता गया इससे उनके पूर्व पुरूष जिस वेद ज्ञाता थे तदनुसार वेदाभ्‍यासी कहलाते हैं।

प्रत्येक ब्राह्मण का अपना एक विशिष्ट वेद होता है , जिसे वह अध्ययन -अध्यापन करता है ।

आसान शब्दो मे गौत्र प्रवर्तक ऋषि जिस वेद को चिन्‍तन, व्‍याख्‍यादि के अध्‍ययन एवं वंशानुगत निरन्‍तरता पढ़ने की आज्ञा अपने वंशजों को देता है, उस ब्राम्हण वंश (गोत्र) का वही वेद माना जाता है।

वेद का अभिप्राय यह है कि उस गोत्र का ऋषि ने उसी वेद के पठन-पाठन या प्रचार में विशेष ध्यान दिया और उस गोत्रवाले प्रधानतया उसी वेद का अध्ययन और उसमें कहे गए कर्मों का अनुष्ठान करते आए।

इसीलिए किसी का गोत्र यजुर्वेद है तो किसी का सामवेद और किसी का ऋग्वेद है, तो किसी का अथर्ववेद। उत्तर के देशों में प्राय: साम और यजुर्वेद का ही प्रचार था। किसी-किसी का ही अथर्ववेद मिलता है।

4..उपवेद ….

प्रत्येक वेद से सम्बद्ध ब्राम्हण को विशिष्ट उपवेद का भी ज्ञान होना चाहिये । वेदों की सहायता के लिए कलाकौशल का प्रचार कर संसार की सामाजिक उन्‍नति का मार्ग बतलाने वाले शास्‍त्र का नाम उपवेद है।

उपवेद उन सब विद्याओं को कहा जाता है, जो वेद के ही अन्तर्गत हों। यह वेद के ही आश्रित तथा वेदों से ही निकले होते हैं। जैसे-

धनुर्वेद … विश्वामित्र ने इसे यजुर्वेद से निकला था।

गन्धर्ववेद … भरतमुनि ने इसे सामवेद से निकाला था।

आयुर्वेद …. धन्वंतरि ने इसे ऋग्वेद से इसे निकाला था।

स्थापत्य ….विश्वकर्मा ने अथर्ववेद से इसे निकला था।

हर गोत्र का अलग अलग उपवेद होता है

5…शाखा …..

वेदो के विस्तार के साथ ऋषियों ने प्रत्येक एक गोत्र के लिए एक वेद के अध्ययन की परंपरा डाली है , कालान्तर में जब एक व्यक्ति उसके गोत्र के लिए निर्धारित वेद पढने में असमर्थ हो जाता था तो ऋषियों ने वैदिक परम्परा को जीवित रखने के लिए शाखाओं का निर्माण किया।

इस प्रकार से प्रत्येक गोत्र के लिए अपने वेद की उस शाखा का पूर्ण अध्ययन करना आवश्यक कर दिया। इस प्रकार से उन्‍होने जिसका अध्‍ययन किया, वह उस वेद की शाखा के नाम से पहचाना गया।

प्रत्‍येक वेद में कई शाखायें होती हैं। जैसे —

ऋग्‍वेद की 21 शाखा…

प्रयोग में 5 शाकल, वाष्कल,आश्वलायन, शांखायन और माण्डूकायन…

यजुर्वेद की 101 शाखा….

प्रयोग में 5काठक,
कपिष्ठल,मैत्रियाणी,तैतीरीय,वाजसनेय…

सामवेद की 1000 शाखा…

सभी गायन , मन्त्र यांत्रिक प्रचलित विधान…

अथर्ववेद की 9 शाखा ….

पैपल, दान्त, प्रदान्त, स्नात, सौल, ब्रह्मदाबल, शौनक, देवदर्शत और चरणविद्या…
है।

इस प्रकार चारों वेदों की 1131 शाखा होती है।

प्रत्‍येक वेद की अथवा अपने ही वेद की समस्‍त शाखाओं को अल्‍पायु मानव नहीं पढ़ सकता, इसलिए महर्षियों ने 1 शाखा अवश्‍य पढ़ने का पूर्व में नियम बनाया था और अपने गौत्र में उत्‍पन्‍न होने वालों को आज्ञा दी कि वे अपने वेद की अमूक शाखा को अवश्‍य पढ़ा करें, इसलिए जिस गौत्र वालों को जिस शाखा के पढ़ने का आदेश दिया, उस गौत्र की वही शाखा हो गई।

जैसे पराशर गौत्र का शुक्‍ल यजुर्वेद है और यजुर्वेद की 101 शाखा है। वेद की इन सब शाखाओं को कोई भी व्‍यक्ति नहीं पढ़ सकता, इसलिए उसकी एक शाखा (माध्‍यन्दिनी) को प्रत्‍येक व्‍यक्ति 1-2 साल में पढ़ कर अपने ब्राम्हण होने का कर्तव्य पूर्ण कर सकता है ।।

6…सूत्र ….

व्यक्ति शाखा के अध्ययन में असमर्थ न हो , अतः उस गोत्र के परवर्ती ऋषियों ने उन शाखाओं को सूत्र रूप में विभाजित किया है, जिसके माध्यम से उस शाखा में प्रवाहमान ज्ञान व संस्कृति को कोई क्षति न हो और कुल के लोग संस्कारी हों !

वेदानुकूल स्‍मृतियों में ब्राह्मणों के कर्मो का वर्णन किया है, उन कर्मो की विधि बतलाने वाले ग्रन्‍थ ऋषियों ने सूत्र रूप में लिखे हैं और वे ग्रन्‍थ भिन्‍न-भिन्‍न गौत्रों के लिए निर्धारित वेदों के भिन्‍न-भिन्‍न सूत्र ग्रन्‍थ हैं।

ऋषियों की शिक्षाओं को सूत्र कहा जाता है। प्रत्येक वेद का अपना सूत्र है। सामाजिक, नैतिक तथा शास्त्रानुकूल नियमों वाले सूत्रों को धर्म सूत्र कहते हैं,.ll
आनुष्ठानिक वालों को श्रौत सूत्र तथा घरेलू विधिशास्त्रों की व्याख्या करने वालों को गॄह् सूत्र कहा जाता है।

सूत्र सामान्यतः पद्य या मिश्रित गद्य-पद्य में लिखे हुए हैं।

7…छन्द ….

प्रत्येक ब्राह्मण का अपना परम्परासम्मत छन्द होता है जिसका ज्ञान हर ब्राम्हण को होना चाहिए ।
छंद वेदों के मंत्रों में प्रयुक्त कवित्त मापों को कहा जाता है। श्लोकों में मात्राओं की संख्या और उनके लघु-गुरु उच्चारणों के क्रमों के समूहों को छंद कहते हैं – वेदों में कम से कम 15 प्रकार के छंद प्रयुक्त हुए हैं, और हर गोत्र का एक परम्परागत छंद है ।

अत्यष्टि (ऋग्वेद 9.111.9)
अतिजगती(ऋग्वेद 5.87.1)
अतिशक्वरी
अनुष्टुप
अष्टि
उष्णिक्
एकपदा विराट (दशाक्षरा भी कहते हैं)
गायत्री(प्रसिद्ध गायत्री मंत्र)
जगती
त्रिषटुप
द्विपदा विराट
धृति
पंक्ति
प्रगाथ
प्रस्तार पंक्ति
बृहती
महाबृहती
विराट
शक्वरी

विशेष — …

वेद प्राचीन ज्ञान विज्ञान से युक्त ग्रन्थ है जिन्हें अपौरुषेय (किसी मानव/देवता ने नहीं लिखे) तथा अनादि माना जाता हैं, बल्कि अनादि सत्य का प्राकट्य है जिनकी वैधता शाश्वत है।

वेदों को श्रुति माना जाता है (श्रवण हेतु, जो मौखिक परंपरा का द्योतक है) लिखे हुए में मिलावट की जा सकती है लेकिन जो कंठस्थ है उसमें कोई कैसे मिलावट कर सकता है इसलिए ब्राम्हणो ने वेदों को श्रुति के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाया.ll

जो ज्ञान शदियों से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होता रहा , हर ब्राम्हण अपने बच्चों को ये जिम्मेदारी देता था कि वो अपने पूर्वजों की इस धरोहर का इस ज्ञान का वाहक बने और समाज और आने वाली पीढ़ी को ये ज्ञान दे ….

लेकिन हम इस पश्चिमीकरण के दौड़ में इस कदर अंधे हुए की हम अपनी जिम्मेदारियों को विस्मृत कर बैठे.ll

वेदों में वो सब कुछ है जो आज भी विज्ञान के लिए आश्चर्य का विषय है जरूरत है तो बस उन कंधों की जो इस जिम्मेदारी का भार उठा सके ।।

8..शिखा ….

अपनी कुल परम्परा के अनुरूप शिखा को दक्षिणावर्त अथवा वामावार्त्त रूप से बांधने की परम्परा शिखा कहलाती है ।शिखा में जो ग्रंथि देता वह बाईं तरफ घुमा कर और कोई दाहिनी तरफ। प्राय: यही नियम था कि सामवेदियों की बाईं शिखा और यजुर्वेदियों की दाहिनी शिखा कही कही इसमे भी भेद मिलता है ।।
परम्परागत रूप से हर ब्राम्हण को शिखा धारण करनी चाहिए ( इसका अपना वैज्ञानिक लाभ है) लेकिन आज कल इसे धारण करने वाले को सिर्फ कर्मकांडी ही माना जाता है ना तो किसी को इसका लाभ पता है ना कोई रखना चाहता है ।।

9…पाद ..

अपने-अपने गोत्रानुसार लोग अपना पाद प्रक्षालन करते हैं । ये भी अपनी एक पहचान बनाने के लिए ही, बनाया गया एक नियम है । अपने -अपने गोत्र के अनुसार ब्राह्मण लोग पहले अपना बायाँ पैर धोते, तो किसी गोत्र के लोग पहले अपना दायाँ पैर धोते, इसे ही पाद कहते हैं ।सामवेदियों का बायाँ पाद और इसी प्रकार यजुर्वेदियों की दाहिना पाद माना जाता है ।।

10…देवता ….

प्रत्येक वेद या शाखा का पठन, पाठन करने वाले किसी विशेष देव की आराधना करते है वही उनका कुल देवता (गणेश , विष्णु, शिव , दुर्गा ,सूर्य इत्यादि पञ्च देवों में से कोई एक) उनके आराध्‍य देव है । इसी प्रकार कुल के भी संरक्षक देवता या कुलदेवी होती हें । इनका ज्ञान कुल के वयोवृद्ध अग्रजों (माता-पिता आदि ) के द्वारा अगली पीड़ी को दिया जाता है । एक कुलीन ब्राह्मण को अपने तीनों प्रकार के देवताओं का बोध तो अवश्य ही होना चाहिए –

(1) इष्ट देवता अथवा इष्ट देवी ।
(2) कुल देवता अथवा कुल देवी ।
(2) ग्राम देवता अथवा ग्राम देवी ।

11…द्वार ….

यज्ञ मण्डप में अध्वर्यु (यज्ञकर्त्ता ) जिस दिशा अथवा द्वार से प्रवेश करता है अथवा जिस दिशा में बैठता है, वही उस गोत्र वालों की द्वार होता है।
यज्ञ मंडप तैयार करने की कुल 39 विधाएं है और हर गोत्र के ब्राम्हण के प्रवेश के लिए अलग द्वार होता है

श्यामबेरीवाल ने तप्त मुद्रा वाली हमारी पोस्ट पर डा अशोक विश्वामित्र जी से पूछा है कि श्रीनिम्बार्क भगवान ने तप्त मुद्रा का उल्लेख कहाॅ किया है?

मेरे द्वारा उत्तर– त्रेतान्त काल में जन्मे और द्वापरान्त में श्रीनिम्बार्क भगवान के शिष्य बने श्रीगौरमुखाचार्यजी ने श्रीनिम्बार्क सहस्त्रनाम में एक नाम ” तप्तमुद्राप्रवर्तकाय नम़ः ” भी है कोई भी पढ ले और अर्थ तो सरल सुग्राह्य है ही । कुछ मूर्ख विशेष कर वृन्दावन के अधकचरे रसोपासक आडम्बरी बकवास करते हैं तो उनका मत और आहार शास्त्र विरुध्द है । ये धूर्त एकादशी को भी चावल खाते हैं यानि इन्द्रिय संयम नहीं । भगवद्गीता के अनुसार शास्त्र अनुसरण परमावश्यक ।

इस का लेखक डा राधा कान्त वत्स

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