वेदान्त कामधेनु-दशश्लोकी
भगवान् श्रीनिम्बार्काचार्य प्रणीत वेदान्त कामधेनु-दशश्लोकी
ज्ञानस्वरूपञ्च हरेरधीनं शरीरसंयोगवियोगयोग्यम्।
अणुं हि जीवं प्रतिदेहभिन्नं ज्ञातृत्ववन्तं यदनन्तमाहुः ||१||
यह जीवात्मा ज्ञान स्वरूप नित्य चेतन ज्योतिस्वरूप अर्थात् प्रकाश स्वरूप है तथा ज्ञातृत्ववान् अर्थात् ज्ञानाधिकरण ज्ञान का आश्रय है । यह जीवात्मा सर्वान्तरात्मा सर्वेश्वर श्रीहरि के सर्वदा अधीन है सभी अवस्थाओं में परतन्त्र है,परिमाण में यह अणुरूप अतिन्द्रिय है, नाना शरीरों के साथ संयोग-वियोग योग्य प्रत्येक देह में भिन्न-भिन्न और अनन्त है – वेदान्त वचन एवं महर्षियों के उपदेश इसी का प्रतिपादन करते हैं ।
अनादिमायापरियुक्तरूपं त्वेनं विदुर्वै भगवत्प्रसादात् ।
मुक्तञ्च बद्धं किल बद्धमुक्तं प्रभेदबाहुल्यमथापि बोध्यम् ||२||
ज्ञान स्वरूप एवं ज्ञातृत्ववान् होने पर भी जीव परात्पर परब्रह्म सर्वेश्वर श्रीहरि की अनन्त अचिन्त्य अघटघटना पटीयसी अनादिकर्मात्मिका त्रिगुणात्मिका माया से परिव्याप्त है अतएव अपने स्वरूप का यथार्थ बोध नहीं कर पाता, परन्तु उन सर्वज्ञ अखिलान्तरात्मा श्रीहरि की जब अहैतुकी कृपा हो जाती है तब वह जीव अपने स्वरूप का यथार्थ परिज्ञान करने में समर्थ हो जाता है। बद्ध और मुक्त भेद से द्विविधरूप जीवात्मा बुभुक्षु-मुमुक्षु इत्यादि विविध भेदों में विभक्त रूप से अवस्थित है ।
अप्राकृतं प्राकृतरूपकञ्च कालस्वरूपं तदचेतनं मतम्।
मायाप्रधानादिपदप्रवाच्यं शुक्लादिभेदाश्च समेऽपि तत्र ||३||
ज्ञानस्वरूपता एवं ज्ञातृत्व शक्ति से रहित को ‘अचेतन’ कहते हैं जो तीन रूप में विद्यमान है अप्राकृत-प्राकृत तथा कालस्वरूप। इनमें ‘माया’ ‘प्रधान’ प्रकृति शब्दों से अभिहित त्रिविध गुणों का आश्रय ‘प्राकृत’ रूप अचेतन कहा गया है जो शुक्ल-कृष्णादि भेद से विद्यमान है। प्राकृत तथा काल से विलक्षण प्रकाश स्वरूप नित्य दिव्य भगवद्धाम को अप्राकृत अचेतन में प्रतिपादित किया गया है।
स्वभावतोऽपास्तसमस्तदोषमशेषकल्याणगुणैकराशिम्।
व्यूहाङ्गिनं ब्रह्म परं वरेण्यं ध्यायेम कृष्णं कमलेक्षणं हरिम् ||४||
जो स्वाभाविक रूप से यावन्मात्र निखिल दोषों से रहित हैं। सौन्दर्य-सौकुमार्य-माधुर्य लावण्य, कारूण्य, मार्दवादिअनन्त दिव्य गुणों के असीम परमनिधि हैं। वासुदेव संकर्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरूद्ध प्रभेद से चतुर्युह एवं नानाविध अवतारों के जो मूल अङ्गी हैं। विधि-शिव-पुरन्दरादि सुरवृन्दों एवं पराभक्तिपरायण रसिक प्रपन्नभक्तों द्वारा सर्वदा वरेण्य अर्थात् परम उपासनीय है। ऐसे नयनाभिराम अरविन्दलोचन परात्पर परब्रह्म सर्वेश्वर श्रीहरि भगवान् श्रीकृष्ण का हम सभी अनन्त जीवात्मा प्रतिपल ध्यान करें।
अङ्गे तु वामे वृषभानुजां मुदा विराजमानामनुरूपसौभगाम्।
सखीसहस्रैः परिसेवितां सदा स्मरेम देवीं सकलेष्टकामदाम् ||५||
ऐसे अनन्तदिव्यगुणगणनिलय सर्वेश्वर सर्वद्रष्टा भगवान् श्रीकृष्ण के वामाङ्ग में परमानन्द पूर्वक नित्य विराजमान उन्हीं अनन्तकृपासिन्धु श्रीप्रभु के अनुरूप सौन्दर्यमाधुर्यस्वरूपा परमाह्लादिनी श्रीवृषभानुनन्दिनी अतिशय सुशोभित हैं। अगणित नित्य सखी परिकर से प्रतिपल संसेवित हैं। प्रपन्न रसिक भगवद्-भक्तों के मङ्गलमय मनोरथों को पूर्णकरने वाली श्रुतिप्रतिपाद्य देवी श्रीराधिका का हम समस्त जीव मात्र सर्वदा स्मरण करें।
उपासनीयं नितरां जनैः सदा प्रहाणयेऽज्ञानतमोऽनुवृत्तेः।
सनन्दनाद्यैर्मुनिभिस्तथोक्तं श्रीनारदायाखिलतत्वसाक्षिणे ||६||
जागतिक अज्ञानान्धकार जिससे प्राणी सर्वदा विविध कष्टानुभूति करता है, उसकी सर्वथा निवृत्ति के लिए भगवज्जनों को भगवान् श्रीराधाकृष्ण की सर्वविध रूप से निरन्तर उपासना करनी चाहिए। उक्त उपासना परम्परा का श्रीसनकादि महर्षियों ने निखिलतत्त्वसाक्षी सर्ववेत्ता देवर्षिवर्य श्रीनारदजी जो हमारे सर्वस्व भगवत्स्वरूप श्रीगुरुदेव हैं, उन्हें यह उपेदश प्रदान किया और यही उपदेश देवर्षि से हमें प्राप्त हुआ। अत: इसी युगल उपासना का श्रीभगवद्दर्शनाभिलाषी परम रसिक भावुक उपासकों के हितार्थ यहाँ निर्देश किया है।
* वस्तुतः उक्तंश्लोक में निर्दिष्ट अपनी उपासना गुरु परम्परा का प्रतिपादन भी स्पष्ट है, इससे श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय का अनादित्व एवं वैदिकत्व भी सम्यक् प्रकार अभिव्यञ्जित हुआ है।*
सर्वं हि विज्ञानमतो यथार्थकं श्रुतिस्मृतिभ्यो निखिलस्य वस्तुनः। ब्रह्मात्मकत्वादिति वेदविन्मतं त्रिरूपताऽपि श्रुतिसूत्रसाधिता ||७||
विचित्ररचनारूप चेतनाचेतनात्मक यह समग्र जगत् ब्रह्मात्मक है। पुराणपुरुषोत्तम परब्रह्म सर्वेश्वर श्रीकृष्ण समस्त जगत् की एकमात्र अन्तरात्मा है सुतरां सम्पूर्ण विज्ञान ध्रुव रूप से यथार्थ है। भोक्ता, भोग्य, नियन्ता यह त्रिविध त्रिरूपता श्रुति सूत्र-स्मृति द्वारा भिन्न स्वरूप प्रतिपादित होने से यह ब्रह्म से भिन्न भी है। एवंविध यह चेतनाचेतनात्मक जगत् ब्रह्म से भिन्न भी है एवं अभिन्न भी वस्तुतः यही स्वाभाविक भिन्नाभिन्न, भेदा-भेद या स्वाभाविक द्वैताद्वैत सिद्धान्त है इसे ही वेदतत्वज्ञ श्रीसनकादि महर्षि एवं श्रीनारदादिदेवर्षि या महर्षि व्यास ने प्रतिपादित किया।
नान्या गतिः कृष्णपदारविन्दात् संदृश्यते ब्रह्मशिवादिवन्दितात्।
भक्तेच्छयोपात्तसुचिन्त्यविग्रहादचिन्त्यशक्तेरविचिन्त्यसाशयात् ||८||
भगवान श्रीकृष्ण के ब्रह्मशिवादिवन्दित युगलपदारविन्द के अतिरिक्त जीवों के लिए अन्य कोई गति अर्थात मार्ग या अवलम्ब दृष्टिगत ही नहीं है। शरणापन्न भक्तों की उत्तम इच्छा के अनुरूप मङ्गलमय विग्रह स्वरूप धारणकरने वाले अचिन्त्य शक्ति स्वरूप विधि-शिव-पुरन्दरादि द्वारा जिनके आशय को समझना अचिन्त्य एवं अतर्क्य है। अत: एवंविध स्वरूप विराजित भगवान् श्रीकृष्ण के चरण कमल के बिना कोई मार्ग अर्थात् शरण्य नहीं है। श्रीभगवत्-शरणागति ही इस श्लोक का अति संक्षिप्त भावार्थ है।
कृपास्य दैन्यादियुजि प्रजायते यया भवेत्प्रेमविशेषलक्षणा।
भक्तिर्ह्यनन्याधिपतेर्महात्मनः साचोत्तमासाधनरूपिकाऽपरा ||९||
अनन्त कृपापयोधि भगवान् श्रीकृष्ण की अनिर्वचनीय कृपा दैन्यादि लक्षण समन्वित शरणागत भक्तों पर होती है। जिस दिव्य भगवदीय कृपा से उन दयार्णव सर्वेश्वर के पादपद्यों में जो भक्ति है वही फलरूपा एवं प्रेमलक्षणा उत्तमा पराभक्ति कही गई है, और यह पराभक्ति उन अनन्य रसिकशेखर महात्माओं के अन्त:करण में ही आविर्भूत होती है तथा बहुजन्मार्जित सत्कर्म साधन से प्राप्त होने वाली साधनरूपा अपरा भक्ति कहलाती है।
उपास्य रूपं तदुपासकस्य च कृपाफलं भक्तिरसस्ततः परम्।
विरोधिनो रूपमथैतदाप्ते र्ज्ञेया इमेऽर्था अपि पञ्च साधुभिः ||१०||
(१) उपास्य – परात्पर परब्रह्म नित्य नवयुगलकिशोर सर्वेश्वर श्रीराधाकृष्ण के दिव्य स्वरूप का परिज्ञान (२) उपासक – इस जीवात्मा के स्वरूप का ज्ञान (३) कृपाफल – भगवान् श्रीराधाकृष्ण की कृपा का श्रीभगवत्प्राप्ति फल (४) भक्तिरस – अर्थात श्रीराधासर्वेश्वर प्रभु के युगलपदाम्बुजों में अनन्य पराभक्ति (५) विरोधी स्वरूप -अर्थात श्रीभगवद्विग्रह में प्राकृत बुद्धि करना, भगवत्परक मंत्रों को सामान्य शब्द श्रीभगवदगाथाओं में संदेह प्रकट करना आदि तथा काम, क्रोध, लोभ-मोहादि ये सभी भगवत्प्राप्ति में परम विरोधी रूप हैं। एवंविध इन पाँच प्रकार के अर्थ पञ्चक का साधकजनों को अवश्य ही परिज्ञान करना नितान्त आवश्यक है।
#श्रीनिम्बार्काचार्यकादार्शनिकसिद्धांत
#स्वाभाविक_द्वैताद्वैत
श्रीनिम्बार्काचार्य चरण ने ब्रह्म ज्ञान का कारण एकमात्र शास्त्र को माना है। सम्पूर्ण धर्मों का मूल वेद है। वेद विपरीत स्मृतियाँ अमान्य हैं। जहाँ श्रुति में परस्पर द्वैध (भिन्न रूपत्व) भी आता हो वहाँ श्रुति रूप होने से दोनों ही धर्म हैं। किसी एक को उपादेय तथा अन्य को हेय नहीं कहा जा सकता। तुल्य बल होने से सभी श्रुतियाँ प्रधान हैं। किसी के प्रधान व किसी के गौण भाव की कल्पना करना उचित नहीं है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए भिन्न रूप श्रुतियों का भी समन्वय करके निम्बार्क दर्शन ने स्वाभाविक भेदाभेद सम्बन्ध को स्वीकृत किया है। इसमें समन्वयात्मक दृष्टि होने से भिन्न रूप श्रुति का भी परस्पर कोई विरोध नहीं होता। अतएव निम्बार्क दर्शन को ‘अविरोध मत’ के नाम से भी अभिहित करते हैं।
श्रुतियों में कुछ भेद का बोध कराती हैं तो कुछ अभेद का निर्देश देती हैं।
यथा- ‘पराऽय शक्तिर्विविधैव श्रूयते, स्वाभाविक ज्ञान
बल-क्रिया च’ (श्वे० ६/८)
‘सर्वांल्लोकानीशते ईशनीभिः’ (श्वे० ३/१)
‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति,
यत्प्रयन्त्यभि संविशन्ति’ (तै० ३/१/१) ।
‘नित्यो नित्यानां चेतश्नचेतनानामेको बहूनां यो विदधाति
कामान् (कठ० ५/१३) अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।’
(गीता १०/८) इत्यादि श्रुतियाँ ब्रह्म और जगत के भेद का प्रतिपादन
करती हैं।
‘सदेव सौम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्’ (छा० ६/२/
१) आत्मा वा इदमेकमासीत्’ (तै०२/१) तत्त्वमसि’ (छा./१४/
३) ‘अयमात्मा ब्रह्म’ (बृ० २/५/१६) सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ (छा.
३/१४/१) मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणि गणा इव’ (गी, ७/७/)
इत्यादि अभेद का बोध कराती हैं।
इस प्रकार भेद और अभेद दोनों विरुद्ध पदार्थों का निर्देश करने वाली श्रुतियों में से किसी एक प्रकार की श्रुति को उपादेय अथवा प्रधान कहें तो दूसरी को हेय या गौण कहना पड़ेगा। इससे शास्त्र की हानि होती है। क्योंकि वेद सर्वांशतया प्रमाण है। श्रुति स्मृतियों का निर्णय है। अतः तुल्य होने से भेद और अभेद दोनों को ही प्रधान मानना होगा, व्यावहारिक दृष्टि से यह सम्भव नहीं। भेद अभेद नहीं हो सकता और अभेद को भेद नहीं कह सकते। ऐसी स्थिति में कोई ऐसा मार्ग निकालना होगा कि दोनों में विरोध न हो तथा समन्वय हो जावे।
श्रीनिम्बार्काचार्यपाद ने उक्त समस्या का समाधान करके ऐसे ही अविरोधी समन्वयात्मक मार्ग का उपदेश किया है।
आपश्री का कहना है–
‘ब्रह्म जगत् का उपादान कारण है। उपादान अपने कार्य से अभिन्न होता है। स्वयं मिट्टी ही घड़ा बन जाती है। उसके बिना घडे की कोई सत्ता नहीं। कार्य अपने कारण में अति सूक्ष्म रूप से रहते हैं। उस समय नाम रूप का विभाग न होने के कारण कार्य का पृथक् रूप से ग्रहण नहीं होता पर अपने कारण में उसकी सत्ता अवश्य रहती है। इस प्रकार कार्य व कारण की ऐक्यावस्था को ही अभेद कहते हैं।’
‘सदेव सौम्येदमग्र आसीत् ०’ इत्यादि श्रुतियों का यह ही अभिप्राय है। इसी से सत् ख्याति की उपपत्ति होती है। सद्रूप होने से यह अभेद सवाभाविक है।
दृश्यमान जगत् ब्रह्म का ही परिणाम है। वह दूध से दही जैसा नहीं है। दूध, दही बनकर अपने दुग्धत्व (दूधपने) को जिस प्रकार समाप्त कर देता है, वैसे ब्रह्म जगत् के रूप में परिणत होकर अपने स्वरूप को समाप्त नहीं करता, अपितु मकड़ी के जाले के समान अपनी शक्ति का विक्षेप करके जगत् की सृष्टि करता है। यह ही शक्ति-विक्षेप लक्षण परिणाम है।
यस्तन्तुनाभ इव तन्तुभिः प्रधानजैः।
स्वभावतो देव एकः । समावृणोति स नो दधातु ब्रह्माव्ययम्।।
(श्वे० ६/१०)
‘यदिदं किञ्च तत् सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशत्
(तै. २/६)
इत्यादि श्रुतियाँ इसमें प्रमाण हैं।
ब्रह्म ही प्राणियों को अपने-अपने किये कर्मों का फल भुगताता है, अतः जगत् का निमित्त कारण होने से ब्रह्म और जगत् का भेद भी सिद्ध होता है, जो कि अभेद के समान स्वाभाविक ही है।
इसी समन्वयात्मक दार्शनिक प्रणाली को स्वाभाविक भेदाभेद अथवा स्वाभाविक द्वैताद्वैत शब्द से अभिहित करते हैं, जिसका उपदेश अमित प्रतापी श्रीनिम्बार्काचार्य चरण ने किया है।