अनन्त श्रीविभूषित जगद्गुरु निम्बार्काचार्य दिग्विजयी, प्रस्थानत्रयी-भाष्यकार श्रीकेशवकाश्मीरिभट्टाचार्य इस आचार्य परम्परा में श्रीहंस भगवान् से 33 वीं संख्या में श्रीनिम्बार्काचार्यपीठ पर विराजमान थे। आपका आविर्भाव तैलंग देशस्थ वैदुर्यपत्तन, मूंगी-पैठन, श्रीनिम्बार्काचार्यजी की वंश परम्परा में ही हुआ था। आपका स्थितिकाल 13 वीं शताब्दी माना जाता है। आपने भारत-भ्रमण कर कई बार दिग्विजय किया था। काश्मीर में अधिक निवास करने के कारण आपके नाम के साथ ‘‘काश्मीरि‘‘ विशेषण प्रसिद्ध हो गया था।
श्रीकेशवदेव नें मथुरा में यवनों का दमन कर जन्मस्थान से मुस्लिमों के आतंक का शमन किया था। “कटरा-केशवदेव” इन्ही श्रीकेशवकाश्मीरीभट्टदेवाचार्य के नाम से प्रसिद्द हैं। तथा वहां के कृष्ण जन्मभूमि मंदिर का गोस्वामी परिवार इन्हे अपना पूर्वज मानता हैं। इससे भी इस तथ्य की पुष्टि होती हैं।
भक्तमालकार नाभादास जी ने भक्तमाल में इनके सम्बन्ध में अपने पद में “काश्मीर की छाप” और मथुरा में मुस्लिम तांत्रिक प्रयोग के विरुद्ध प्रयोग का विशेष उल्लेख किया हैं।
उनके जीवन की सबसे प्रसिद्ध एवं चमत्कारी घटना विश्राम घाट मथुरा की घटना है। कहते है, तत्कालीन किसी यवन फकीर ने हिन्दुओं को आतंकित करने के लिए मथुरा के विश्रामघाट पर एक ऐसा यन्त्र लगा दिया था जिसके नीचे से जाने पर हिन्दुओं की सुन्नत हो जाती थी। इस घटना से आतंकित होकर तत्कालीन पीड़ित हिन्दुओं ने जाकर श्रीकेशव काश्मीरि प्रभु से प्रार्थना की तो ये हिन्दुओं के इस आतंक से द्रवित होकर तुरंत मथुरा पधारे और पहले तो उस यवन फकीर से इस काम को बन्द करने को कहा। उसने जब नहीं माना तो श्रीकेशव कश्मीरी जी ने तत्काल वहाँ एक यन्त्र लगा दिया जिसके नीचे यदि कोई यवन जाता तो उसके शरीर में प्रचण्ड दाह उत्पन्न हो जाता और वह वहीं मूर्छित होकर गिर जाता। तब भयभीत होकर उस यवन फकीर ने अपना यन्त्र वहाँ से हटा लिया। जैसा कि उनके चरित्र में लिखा है:
“इन्द्रजाल कृतं यन्त्र पश्यन्ति स्मात्र माथुरा:
दर्शनादेव यन्त्रस्य त्विन्द्रजालप्रभावतः।
अङ्गहीनां द्विजन्मानो म्लेच्छतां प्राप्नुवंश्च वै
स्थापिते गोपुरे यन्त्रे म्लेच्छाश्व यदृशुस्तया
दर्शनादेव यन्त्रस्य मूर्छाम्लेच्छाः प्रपेदिरे।।”
नाभादास जी ने भक्तमाल वर्णन किया है :
श्री केशव भट्ट नर मुकुट मणि जिनकी प्रभुता विस्तारी।
काश्मीरि की छाप पाप तापन जगमण्डन,
दृढ़ हरि भक्ति कुठार आनमत विटप विखण्डन।
मथुरा महा म्लेच्छ वादकरि वरवर जीते,
काजी अजित अनेक देखि परचै भै भीते।।
विदित बात संसार सब सन्त साखी नाहिन दूरी।
श्री केशव भट्ट मुकुट मणि जिनकी प्रभुता विस्तरी।।
काश्मीर में ही आपने वेदान्त सूत्रों पर ‘‘कौस्तुभ प्रभा‘‘ नामक विषद् भाष्य लिखा और उज्जैन में कुछ दिनों स्थाई निवास कर श्रीमद्भगवद्गीता पर ‘‘तत्व-प्रकाशिका– नामक टीका लिखी, भागवत में भी लिखी थीं, किन्तु उसमें ‘‘वेद स्तुति‘‘ वाला सन्दर्भ ही उपलब्ध है। इसी प्रकार आपका एक ‘‘क्रम-दीपिका‘‘ नामक ग्रन्थ भी है, जिसमें मन्त्रानुष्ठान का विधि पूर्वक वर्णन हैं। श्रीमद्भागवत् गीता एवं उपनिषदों पर भी आपकी विस्तृत संस्कृत टीका है।
इनके शिष्य श्रीभट्ट देवाचार्य अपने गुरु के सानिध्य में काश्मीर में ही अधिक रहे इसकी पुष्टि “तबाकते अकबरी भाग ३” से भी होती हैं। तबाकाते अकबरी के अनुसार “कश्मीर के शासक राजा उदल को पराजित कर सुलतान शमशुद्दीन ने कश्मीर में मुस्लिम शासन की शुरुवात की थी। इसी शमशुद्दीन की आठवीं पीढ़ी में जैनूल आबदीन(शाही खान) हुआ जो कला विद्या प्रेमी था। इसके दरबार में श्रीभट्ट जी का बड़ा सम्मान था जो बड़े भारी कवि और भैषज कला में भी निपुण थे। श्रीभट्ट जी ने सुलतान को मरणांतक रोग से मुक्ति दिलाई थी तब श्रीभट्ट जी के कहने पर सुलतान ने अन्य ब्राह्मणों को जो उसके पिता सिकंदर द्वारा निष्काषित कर दिए गए थे पुनः अपने राज्य में बुला लिया था तथा जजिया बंद कर दिया था।”
जगद्गुरु श्रीनिम्बार्कपीठाधीश्वर स्वामी श्रीपरशुरामदेवाचार्य जी के प्राकट्य महोत्सव की मङ्गल बधाई
आचारज हरिव्यास के, शिष्य सपूत अनन्त ।
तिन में मुखिया परसुरां, गादीवन्त महंत ।।
कण्ठमाल हरिव्यास की, पुनि सर्वेश्वर देव ।
सो राजत श्रीमत् प्रभू, परसुराम के सीस ।।
सिष्य सकल हरिव्यास के और प्रसिष्य अनंत ।
परशुराम पद-पादुका, सब हो आन नमंत ।।
(हरि व्यास छब्बीसी)
श्रीनिम्बार्काचार्य श्रीसुदर्शन चक्रराज के अवतार हैं। नारद पञ्चरात्र में कहा है, शंख साक्षात् वासुदेव है, गदा संकर्षण रूप है, पद्म प्रद्युम्न और सुदर्शन अनिरुद्ध स्वरूप हैं-इस प्रकार ये चारों आयुध चतुयूंह रूप
‘शंखः साक्षाद्वासुदेवो गदा संकर्षणः स्वयम् । वभूव पद्म प्रद्युम्नोऽनिरुद्धस्तु सुदर्शनः ।। नैमिष खण्ड में श्रीसुदर्शन का त्रेतायुग में हविर्धान रूप से अवतार हुआ था–
हविर्षि धारयन् पुष्णन् हविर्धान इतीर्यते । वेदानानन्दयेद्यस्मान्नियमानन्द ईय॑ते ।।
हवि को धारण करने से हविर्धान नाम हुआ, फिर द्वापरान्त में समस्त वेदों का समान रूप से समर्थन कर उन्हें आनन्दित करने से नियमानन्द नाम हुआ।
औदुम्बराचार्य ने भी लिखा है–प्रथम युग में कभी गोवर्धन के निकट निम्बग्राम में जगन्नाथजी की धर्मपत्नी श्रीसरस्वतीदेवजी एवं जयन्ती के उदर से वैशाख शुक्ल ३ को भी साक्षात् सुदर्शन निम्बादित्य नाम से अवतीर्ण हुए थे।
गोवर्धन समीपेतु निम्बग्रामे द्विजोत्तमः।
जगन्नाथस्यपल्यां वै जयन्त्यां प्रथमे युगे । वैशाखे शुद्धपक्षे च तृतीयायां तिथौ पुनः।। साक्षात्सुदर्शनोलोके निम्बादित्यो बभूवह ।।
नैमिषखण्ड में लिखा है कि श्रीनारदजी ने विप्रपालक सुदर्शनजी को वेदों का सार उद्धृत करके अपनी वाणी से ग्रहण कराया था।
आम्नायरसमुद्धृत्य विंप्रपालं सुदर्शनम् । स्वया भाषा ग्रहासन्नं ग्राहयामास नारदः ।।
कांची खंड में-ऐसे ही अभिप्राय का वाक्य मिलता है-
वीणापाणेगुरोर्लब्ध्वा मोक्षोपायं सुदर्शनः ।
वेदान्तवेद्य सद्धर्मं समग्रहौ च सर्वशः ।।
श्रीनिम्बार्काचार्य ने तपश्चर्या करते समय केवल निम्बक्वाथ का ही अशन किया था, ऐसा सम्मोहन तन्त्र में कहा गया है–
हविर्द्धनाभिधानस्तु चक्रमासीन्महामुनिः।
सोऽतप्यत तपस्तीनं निम्बाथैक भोजनः ।।
उन्होंने दो बीज और लगाकर (अष्टादशाक्षर मन्त्र का) बीस अक्षरों का स्वरूप बनाकर श्रीवृन्दावन की माधवी लताओं के मण्डप में बैठकर जप किया था।
आशु सिद्धिकरं मन्त्रं विंशत्यर्णञ्च जप्तवान् ।
अनन्तरं मारवीजाद्यग्नारूढं तदेव तु ।
दध्यौ वृन्दावने रम्ये माधवी मंडपे प्रभूः ।।
भविष्य पुराण में लिखा है–पुरुषार्थों (धर्म अर्थ काम मोक्षों) की वर्षा करने एवं श्रीयुगलकिशोर की स्वयं सेवा करने तथा मोक्ष रूपी पुरुषार्थ (पराभक्ति) के कारण ही इनका नाम निम्बार्क प्रसिद्ध हुआ —
पुरुषार्थ प्रवर्षित्वात्सेवांगी कृतया स्वयम्।।
कर्मणा मोक्ष रूपेण निम्बार्क इति विश्रुतः ।। |
कृष्णोपनिषत् की “गोप्यो गाव ऋचस्तस्य’ इस ऋचा में श्रीनिम्बार्क के आठ स्वरूपों की झलक मिलती है। वामन पुराण में कहा है कि-बदरिकाश्रम के कर्णक क्षेत्र (कर्ण प्रयाग) ऐरावती के तट पर भी किसी कल्प में श्रीसुदर्शन का अवतार हुआ था–
कर्णकस्य शुभे क्षेत्रे वदर्याश्रम मंडले।
ऐरावत्यां क्वचिज्जातः प्राक्कल्प इति मे श्रुतम् ।।
इस प्रकार वामन, भविष्य पुराण, काँची खंड, नैमिष खंड और औदुम्बर संहिता आदि ग्रन्थों के वाक्यों के आधार से श्रीनिम्बार्काचार्य चरित्र से संग्रहीत किया गया है जो आचार्य चरित्र के नाम से ख्यात है।
एक समय बहुत से ऋषि-मुनि मिलकर ब्रह्माजी के पास गये और उनसे प्रार्थना करने लगे। प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों प्रकार के वैदिक मार्ग हैं। उनमें प्रथम प्रवृत्त होकर साधक किस प्रकार निवृत्ति पथ का अनुसरण करे? ऋषियों के इस प्रश्न के समाधानार्थ उन्हें साथ लेकर ब्रह्माजी क्षीरसागर के तट पर गये और वहाँ विष्णु भगवान् की प्रार्थना की। तब आकाशवाणी हुई-निवृत्तिमार्ग के उपदेशक सनकादिक एवं नारद आदि हैं, और भी अब एक आचार्य प्रकट होंगे।
आकाशवाणी सुनकर ऋषि-मुनि सब अपने आश्रमों को लौट आये। भगवान् ने अपने परम प्रिय आयुधराज श्रीसुदर्शन चक्रराज को आज्ञा प्रदान की-हे सुदर्शन ! भागवत धर्म के प्रचार-प्रसार में कुछ काल से शिथिलता आरही है, अतः सुमेरु पर्वत के दक्षिण में तैलंग देश में अवतीर्ण होकर आप निवृत्ति-लक्षण भागवत धर्म का प्रचार-प्रसार कीजिये। मथुरा मंडल, नैमिषारण्य, द्वारका आदि मेरे प्रिय धामों में निवास कीजिये। भगवान् के आदेश को शिरोधार्य करके तैलंगदेशीय सुदर्शनाश्रम में भृगुवंशीय अरुण ऋषि की घर्मपत्नी सतीसाध्वी श्रीजयन्तीदेवी जी के उदर से कार्तिक शुक्ल १५ को सायंकाल आपका अवतार हुआ। उस दिन कृत्तिका नक्षत्र था। चन्द्रमा वृष राशि पर उच्चस्थ था। मंगल मकर का वृहस्पति कर्क का शनि तुला का मिथुन का राहू और धन का केतु, ये छ ग्रह उच्च राशियों पर स्थित थे, शुक्र स्वग्रही था। यदि राहू केतु की उच्चस्थता स्वीकृत न की जाय तो चन्द्र, मंगल, वृहस्पति, शनि ये चारों उच्चस्थ स्वग्रही शुक्र को मिलाकर पांचों को उच्चस्थ कह सकते हैं।
श्रीनिम्बार्क के आविर्भूत होते ही चारों दिशायें प्रसन्न हो गई। आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी। अरुण ऋषि नवजात शिशु का मुख देखकर अपने को धन्य मानने लगे। जातकर्म संस्कार करवाये।
एक समय अरुण ऋषि बाहर गये हुए थे, बालक को देखने के लिये ब्रह्माजी यति वेष में अरुण ऋषि के आश्रम में आये, जयन्तीदेवी ने भोजन करने के लिये अनुरोध किया, सूर्यास्त का समय जानकर यति ने भोजन करने से इन्कार किया, तब बालक नियमानन्द उनके चरणों में नमन करके बोले-हे स्वामिन्! अभी सूर्यास्त नहीं हुआ, देखिये उस निम्ब के वृक्ष पर कितने ऊँचे सूर्य हैं। यति ने भोजन किया, ज्यों ही आचमन करके बैठे तो ज्ञात हुआ रात्रि ४-५ घटिका बीत चुकी है, चकित होकर ब्रह्माजी ने कहा-हे चक्रराज ! जिसलिये आपका अवतार हुआ है अब आप वह कार्य कीजिये, थोड़े ही समय बाद यहाँ नारदजी भी आने वाले हैं। आपने मुझे निम्ब पर अपना तेज दिखलाया अतः अब आप लोक और शास्त्र में निम्बार्क नाम से प्रख्यात होंगे। अरुण ऋषि के यहाँ प्रकट होने के कारण आरुणी जयन्ती के उदर से प्रकट होने के कारण जायन्तेय एवं वेदार्थ का विस्तार करने के कारण आप नियमानन्द नाम से विख्यात होंगे। इसी प्रकार और भी आपके बहुत से नाम होंगे जिन्हें ऋषि मुनि प्रयोग में लायेंगे ऐसा कहकर ब्रह्माजी अन्तर्धान हो गये।
थोड़े ही समय के पश्चात् वहाँ वीणा बजाते हुए श्रीनारदजी पहुँचे। श्रीनिम्बार्काचार्य ने उनकी पाद्य अर्थ्यादि द्वारा पूजा की और सिंहासन पर विराजमान करके प्रार्थना की-जो तत्व आपको श्रीसनकादिकों ने बतलाया था उसका उपदेश कृपाकर मुझे कीजिये। ऐसी प्रार्थना करने के अनन्तर नारदजी ने श्रीनिम्बार्काचार्य को विधिपूर्वक पंच संस्कार करके श्रीगोपाल अष्टादशाक्षर मन्त्रराज की दीक्षा दी। उसके पश्चात् श्रीनिम्बार्काचार्य ने नारदजी से और भी कई प्रश्न किये, देवर्षि ने उन सबका समाधान किया, जिसका संकलन-“श्रीनारद नियमानन्द गोष्ठी” के नाम से प्रख्यात हुआ। | स्वपुत्र श्रीनिम्बार्काचार्य के मुख से आध्यत्मिक ज्ञान प्राप्त करके अरुण ऋषि सन्यस्त रूप से पर्यटन करने लगे। माता को भी इसी प्रकार श्रीनिम्बार्काचार्य ने धर्मोपदेश किया और स्वयं नैष्ठिक ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर भारत भ्रमण को निकले। एक नदी में आप स्नान करने लगे तो एक कच्छप से चरणों का स्पर्श हो गया-उसी क्षण कच्छप शरीर छोड़ कर दिव्य रूप बन गया और हाथ जोड़कर स्तुति करने लगा–
श्रीमन्निम्बार्क माचार्य सिंहग्रीवं महाभुजम् ।
तमाल श्यामलांगं तं वन्दे जलज लोचनम् ।।१।।
कैशोर सुन्दरं रामं लावण्यादि गुणाकरम् ।
पीताम्बरधरं शान्तं वन्देनिम्बार्क मीश्वरम् ।।२।।
पक्वबिम्बाधरं सौम्यं सुकपोलं सुनासिकम् ।
सुकेशं चारुसर्वाङ्गम् वन्दे निम्बार्कमीश्वरम् ।।३।।
पीनवक्षो निम्ननाभिं बलिबल्गुदलो दरम् ।।
तुलसीदाम शोभाढ्यं वन्दे निम्बार्कमीश्वरम् ।।७।।
रक्त पंकज पादाग्रं स्वस्तिकासन संस्थितम् ।।
ज्ञानमुद्राधरं धीरं वन्दे निम्बार्क मीश्वरम् ।।५।।
निम्बग्राम कृ तावासं निम्बद्रुम तलाश्रयम् । |
निम्ब क्वाथैक भोक्तारं वन्दे निम्बार्कमीश्वरम् ।।६।।
सर्व विद्याप्रदं सर्व-कामदं क्रोध नाशनम् । ।
कामातीतं गुणातीतं वन्दे निम्बार्कमीश्वरम् ।।७।।
कालातीतं भवातीतं दिव्य मांगल्य विग्रहम् ।
सच्चिदानन्द रूपं तं वन्दे निम्बार्क मीश्वरम् ।।८।।
कोटि सूर्य समाभाष कोटिचन्द्र सुशीतलम् । ।
वायुकोटि बलं देवं वन्दे निम्बार्क मीश्वरम् ।।६।।
श्रीनारदाल्लब्धबोधं हंसवंश प्रवर्तकम् । ।
आद्याचार्यं सदाचार्यं वन्दे निम्बार्कमीश्वरम् ।।१०।।
ज्ञानाय ज्ञानवरदाय खलान्तकाय, |
भक्तप्रियाय कलिकल्मष नाशनाय।।
भक्तस्य ताप हरणाय हरेः प्रियाय,
कृष्णांङ्घ्रिपद्म मकरन्द मधुव्रताय ।।११।। |
शुद्धाय शुद्ध वपुषे च वरप्रदाय, कालाय काल कलनाय भयान्तकाय।
। संसार दुःखशमनाय सुदर्शनाय, |
कृष्णात्मकाय शिवदाय नमो नमस्ते ।।१२।।
श्रीनिम्बार्क दयानिधे गुणनिधे हे भक्त चिन्तामणे!
हे! आचार्य शिरोमणे मुनिगणैरामृग्य पादाम्बुज ।।
हे! सृष्टि स्थिति पालक प्रभवन हे! नाथ मायाधिप!
हे! गोवर्धन कन्दरालय विभो मां पाहि सर्वेश्वर !।।।
पतितं दुर्विनीतं मां देहेन्द्रिय मनोमयम् ।
ज्ञात्वा ह्यनाथंभोस्वामिन् छिन्धृिपाशं सुमोहजम् ।।
एक समय भ्रमण करते हुए श्रीनिम्बार्काचार्य सेतु दर्शनार्थ दक्षिण दिशा में जा पहुँचे। मार्ग में जो-जो भक्त मिले उन सबकी कामनायें पूर्ण की। सेतुबन्ध रामेश्वर के दर्शन करके गुर्जर प्रदेश में पहुँचे। वहां भगवद्भक्ति का प्रचार प्रसार किया। नारायण सरोवर पर पहुँचकर देखा तो बहुत से ब्राह्मण अवैष्णव तुलसी कंठीमाला से रहित दिखाई दिये उन सबको वैष्णव बनाकर तीर्थयात्रा के निमित्त कुरु जांगल प्रदेश में आगये, वहाँ वायुहृद पर ठहरे, वहाँ के बह्मण अन्तःकरण से शैव से शाक्त प्रतीत होते थे, जब कभी कुछ प्राप्ति की आशा दीखे तभी अपने को वैष्णव घोषित कर देते। ऐसे नानारूपधारी ब्राह्मणों ने आपका विरोध किया। उसी क्षण गूलर के पेड़ से एक फल आपके पैरों पर पड़ा, वह उसी क्षण मानव आकार में प्रकट होकर आचार्य चरणों की स्तुति करने लगा। आचार्यश्री ने उन्हें आदेश दिया कि औदुम्बराचार्य के नाम से तुम लोक में ख्यात होंगे-और अपने नाम से ही संहिता लिखोगे। औदुम्बराचार्य भी खड़े हो हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे। उन्हें आशीर्वाद देकर आप नैमिषारण्य पधारे वहाँ पर पहुँचने पर शौनकादि ऋषियों ने आपकी स्तुति की।
गौरमुख आदि को दीक्षा देकर आप बदरिकाश्रम की ओर चल दिये। वहाँ पर कुछ समय निवास करने के अनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेरणा से उद्धवजी वहाँ पहुँचे। उन्होंने व्रजमण्डल में आने के लिए श्रीनिम्बार्काचार्य से अनुरोध किया और भगवान् के आदेश का स्मरण दिलाया। तत्पश्चात् श्रीनिम्बार्काचार्य व्रज में निम्बग्राम आये। यह ज्ञात होते ही आपके शिष्य सदानन्द भट्ट आदि एकत्रित होकर स्तुति करने लगे। कुछ दिन निवास करने के अनन्तर एक विशिष्ट विद्वान् सन्यासी दिग्विजय करते हुए निम्बग्राम पहुँचा। वह माघ शुक्ल ५ का दिन था, सायंकाल होने ही वाला था। सन्यासी ने भिक्षा की याचना की। किन्तु सूर्यास्त से पूर्व ही भिक्षा प्राप्त होने का अनुरोध किया। तब उसे भी निम्बवृक्ष पर अपना तेज दिखलाकर भोजन कराया। इस घटना से विस्मित होकर वे सन्यासी आपके चरणों में गिर पडा और प्रार्थना की तब आपने पञ्च संस्कार पूर्वक वैष्णवी दीक्षा दी। उनका श्रीनिवासाचार्य नाम रखा। उन्होंने एक लघुस्तव द्वारा गुरुदेव की अर्चा की, आचार्यश्री ने उन्हें वेदान्त कामधेनु, वेदान्त पारिजात आदि देकर कहा, थोड़ी दूरी पर ही श्रीराधाकुण्ड है वहाँ रहकर तुम भजन साधन करो।
“नमस्ते श्रियै०” इस राधाष्टक का पाठ करो, शीघ्र ही तुम्हें श्रीराधाकृष्ण के दर्शन हो जायेंगे। यथा
राधाप्रिया विष्णोस्तस्याः कुण्डं तथा प्रियः।
इदं जपत भद्रन्ते राधाष्टकमनुत्तमम् ।
राधया माधवं देवं शीघ्र पश्यसि चक्षुषा ।।
आचार्य चरित्र के सप्तम विश्राम तक जो इतिवृत्त दिया गया है। उसका यह सूक्ष्म सार है। जो विभिन्न पुस्तकों में प्रकाशित हैं।
श्री निम्बार्क सम्प्रदाय आचार्य परम्परा
- श्री हंस भगवान
- श्री सनकादिक भगवान
- श्री नारद भगवान
- सुदर्शन चक्रावतार श्री निम्बार्क भगवान
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- श्री गोपीश्वर शरण देवाचार्य जी
- श्री घनश्याम शरण देवाचार्य जी
- श्री बालकृष्ण शरण देवाचार्य जी
- श्री राधासर्वेश्वर शरण देवाचार्य जी
- गद्दी खाली